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श्रीपार्श्वनाथचरितमहाकाव्य परे ततं च विततं शुधिरं धनमुच्चकैः । एतत् चतुर्विधं वाचं वादयन्ते स्म निर्भरम् ॥१३७॥ एके गायन्ति वल्गन्ति नृत्यन्न्यास्फोटयन्त्यथ । सिंहनादं तथा हस्ति बंहितं चक्ररुच्चकैः ॥१३८॥ केचिज्जिनगुणोद्गानं कीर्तनं विदधुस्तराम् । इन्द्रः कृताभिषेकोऽयं मूर्ध्नि बद्धाञ्जलिर्जगौ ॥१३९।। मुहुर्मुहुर्जयजयाऽऽरावं सम्मृज्य वाससा । चन्द्रचन्दनजैः पकैरानर्च जगतां पतिम् ॥१४॥ नृत्यं विधाय सद्भक्त्या चक्रे रजततण्डुलै. । मङ्गलान्यष्ट संलिख्य कुसुमोत्करमक्षिपत् ॥१४१॥ कृतधूपोऽपसृत्याथ वृत्तैरस्तौन्मनोहरैः । ईशानेन्द्रस्तथा स्नात्रं चक्रे सद्भक्तिनिर्भरः ॥१४२॥ ततः शक्रो भगवतश्चतुरो वृषभान् सितान् । चतुर्दिक्षु विनिर्माय तच्छृङ्गेभ्यो न्यपातयत् ॥१४३॥ अष्टधोत्पत्य मिलितामेकधारां समन्ततः । क्षीरोदनीरजां मूर्ध्नि सा पतन्ती विभोर्व्यभात् ॥१४४॥
(१३७) अन्य कुछ देवता तत, वितत, शुषिर और घन ये चारों प्रकार के वाथ जोर से बजाने लगे । (१३८) कुछ देव गाते हैं, कुछ चेष्टा करते हैं, कुछ नाचते हैं तथा कुछ आस्फोटन करते हैं। कुछ सिंहनाद कर रहे हैं तथा कुछ जोर से हाथी को तरह चिंघाइते है। (१३९), कुछ जिनदेव के गुणगानरूप कीर्तन करते हैं। अभिषेक करने पर इन्द्रदेव पर हाथ जोड़ कर स्तुति करने लगे। (१४०) इन्द्र बारम्बार 'जय जय' की ध्वनि के . साथ वस्त्र से जगत्पति को. पोंछकर चन्दन से उत्पन्न पङ्क से पूजा करते थे। (१४१) . इन्द्रदेव बड़ी भक्ति के साथ नृत्य करके चाँदी के चावलों से आठ मंगलों का भालेखन - करके पुष्पों की वर्षा करने लगे । (१४२) धूप करके, थोड़ा हटकर, ईशानइन्द्र सुन्दर स्तोत्रों .. से प्रार्थना करने लगे और बड़ी भक्ति के साथ भगवान को स्नान कराने लगे। (१९३) उसके । पश्चात् इन्द्रदेव भगवान की चारों दिशाओं में चार श्वेत वृषभों का निर्माण करके उनके सींगों से जलधारोयें गिराने लगे। (१४४) आठ प्रकार से उछल कर, चारों ओर से एकत्र होकर मिली हुई क्षीरसागर के जल की एकधारा भगवान् के मस्तक पर पड़ती हुई शोभित होती थी।
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