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पनसुन्दरसूरिविरचित श्रीमतः श्रीमुखादेषां फलं शुश्रूषुरस्मि तत् । अपूर्वदर्शनं प्रायो विस्मापयति मानसम् ॥३२॥ नरेन्द्रस्तत्फलान्याह किं बक्तेन भामिनि ! । अस्मवंशावतंसं त्वं प्रसोष्यसि सुतोत्तमम् ॥३३।। जजागार जगद्वन्द्या वयस्याभिः प्रबोधिता । सत्कथाकथनोत्काभिस्तल्पवामार्धशायिनी ॥३४॥ उदतिष्ठत् ततो देवी प्राप्तराताद्यनिःस्वनैः । कीर्तनैर्बन्दि वृन्दानां मङ्गलध्वनिशंसिभिः ॥३५।। निद्रां जहीहि देवि ! त्वमिति जागरयत्ययम् । विभातकालः प्रोत्फुल्लपमाञ्जलिपुटैरिव ॥३६ ' मन्दिमानं गतश्चन्द्रो देवि ! त्वन्मुखनिर्जितः । प्रकाशयत्यथ जगत् प्रबुद्ध वन्मुखाम्बुजम् ॥३७॥ इतः प्राच्यां विभान्ति स्म स्तोकाद मुक्ताः करा रवेः। इतः सारससंरावाः श्रूयन्ते सरसीष्वपि ॥३८॥ इतश्च कोकमिथुनं निशाविरहविक्लवम् । कलैशमन्द्रनिःस्वानर्मित्रमभ्यर्थयत्यलम्
॥३९॥
(३२) आप श्रीमान् के मुख से मैं इन स्वप्नों का फल सुनना चाहती हूँ। अपूर्वदर्शन प्रायः मन को आश्चर्यचकित कर देते हैं । (३३) राजा अश्वसेन ने उन स्वप्नों का फल कहा-है देवि !, हे रानी !, ज्यांदा क्या कहुँ ? हमारे वंश के भूषण उत्तम पुत्र को तुम उत्पन्न करोगी । (४) शय्या के बाये अर्ध भाग में सोई हुई जगद्वन्दनीया रानी सुन्दर कथाओं को कहने मैं उत्कण्ठा रखने वाली अपनी सखियों द्वारा जगाई गई । (३५) बाद में वह देवी प्रातःकालीन वाध्वनि से और बन्दि (चारण) समुदाय के मंगल ध्वन्यार्थ को कहने वाले कीर्तनों से उठौं । (३६) हे महारानी ! निद्रा त्यागों । यह प्रातःकाल विकसित कमलपुष्पों के अलिपुटों से तुम्हे जगा रहा है । (३७) हे देवि !, आपके मुख की शोभा से जीता हुमा चन्द्र का प्रकाश मन्द हो गया । गतिमान सूर्य आप के मुखकमल का प्रबोध करे । इधर पूर्व दिशा में थोड़ी छोड़ी हुई सूर्य की किरणे' चमक रही हैं, उधर सरोवरी में सारसों की भावाज सुनाई पड़ रही है। (३९) इधर चक्रवाक मिथुन जो रात्रि के विरह से व्याकुल है अपनो मन्द मन्द मधुर ध्वनि से पर्याप्त रूप में अपने मित्र (सूर्य) से प्रार्थना कर रहा है।
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