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________________ १६ श्रीपार्श्वनाथचरितमहाकाव्य कनकप्रभनामाऽऽसीद् वपुषा कनकप्रभः । व्यतीतबालमावः स जग्राह सकला. कलाः ॥९। भारती वदनाम्भोजे लक्ष्मीस्तस्थौ कराम्बुजे । हित्वा सापल्यविकृतिमुभे एव तमाश्रिते ॥१०॥ द्वासप्ततिकलामिज्ञो राजनीतिविदांवरः । लक्षणग्रन्थसाहित्यसौहित्यं प्राप निर्भरम् ॥११॥ पिता तं राज्यकुशलं मत्वा नार्पत्यमार्पयत् । धुरं वहति धौरेयो न जातुचन गौर्गलिः ॥१२॥ क्रमेण चक्रवर्तित्वं प्राप्य न्यायपथेन सः । शशास सकलां पृथ्वी प्रजापालनतत्परः ॥१३॥ तन्मन्त्रशक्त्या विस्रस्तवीर्या इव महोरगाः । प्रत्यनीकमहीपाला न चक्रुर्विक्रियां क्वचित् ॥१४॥ स नातितीक्ष्णो न मृदुः प्रजासु कृतसम्मदः । निषेव्य मध्यमां वृत्तिं वशीचक्रे जगद् नृपः ।।१५।। न च धर्मार्थकामेषु विरोधोऽस्याऽभवन्मिथः । तद्विवेकप्रयोगेण सौहार्द प्रापितेष्विव ॥१६।। (९) शरीर से स्वर्ण की कान्ति के समान वह बालक कनकप्रभ नाम वाला था । बाल्यकाल व्यतीत होने पर उसने सम्पूर्ण कलाओं को ग्रहण किया ।। (१०) उस (राजकुमार) के मुखकमल में सरस्वती का भौर हस्तकमल में लक्ष्मी का वास था। दोनों (सरस्वतो एवं लक्ष्मी) अपने पारस्परिक शत्रुभावात्मक विकारको छोड़कर उस ( कनकप्रभ ) के आश्रित थी । (११) बहत्तर कलाओं के ज्ञाता, राजनीति के जानकारों में श्रेष्ठ उस राजकुमार ने लक्षणग्रन्थों सहित अनेक साहित्यिक ग्रन्थों का खूब अध्ययन किया था । (१२) पिता ने राजकार्य में कुशल जानकर उसे (=राजकुमार को) राज्य सौंप दिया । ( कहा भी गया है कि ) धौरेय बैल धुरा को वहन करता है, परन्तु गलिया बैल धुरा को वहन नहीं कर सकता ॥ (१३) क्रमशः चक्रवर्तित्व को प्राप्त करके वह (राजकुमार ) न्यायमार्ग से ( =न्यायपूर्वक ) प्रजापालन में तत्पर होता हुआ सम्पूर्ण पृथ्वी का शासन करने लगा ॥ (१४) ( वादी की ) मन्त्रशक्ति से क्षीणवीर्य सर्प की तरह उस ( राजकुमार ) की मन्त्रज्ञक्ति से ध्वस्त पराक्रम वाले प्रतिद्वन्द्वी राजा लोग किसी प्रकार की कहीं पर भो उद्दण्डता नहीं करते थे ॥ (१५) वह न ज्यादा कठोर था, न ज्यादा कोमल । वह प्रजा का आनन्द बढ़ाने वाला था । मध्यममार्ग का अवलम्बन करके उसने सारे संसार को वश में कर लिया था। (१६) इस राजा के धर्म, अर्थ और काम में परस्पर विरोध नहीं था। उसके विवेक के कारण ही मानों उन्होंने परस्पर मित्रता प्राप्त की थी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002632
Book TitleParshvanatha Charita Mahakavya
Original Sutra AuthorPadmasundar
AuthorKshama Munshi
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1986
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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