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________________ श्रीपार्श्वनाथचरितमहाकाव्य तत्राऽऽजगाम स गजो नगजोऽथ वीक्षाचक्रे मुनि विकरुणस्तरुणः क्रुधैत्य । हन्तुं प्रवृत्त इति तं मुनिराह वेसि मां नारविन्दनृपतिं स निशम्य तस्थौ ॥३८॥ प्राग्जन्मनः स्मरणतो निरणायि तेन यस्याहमेव सचिवो मरुभूतिनामा । . एषोऽरविन्दनृपतिर्मुनिभ्यमापत् पूज्यो ममैष भगवानिह वा परत्र ॥३९॥ अथ मुनिर्गहिधर्ममुपादिशत् । परहिते निरतः समदृक् सुधीः । तदुपदेशमिभः शुभभावनः स्फुटमुरीचकृवान् सहदर्शनम् ॥४०॥ विज्ञाय धर्मतत्त्वं स प्रासुकाहारभोजनः । सावधभीरुर्धर्मात्मा गृहिव्रतमुपाश्रितः ॥४१॥ संशुष्कतरुशाखादितृणपर्णान्यदन्नथ लोलितं करियूथेन दृषदास्फालितं पयः ॥४२॥ पारणाहि पपौ सर्वथाऽनाहारस्तपोदिने । संवृतश्चिररात्राय गृहीधर्ममपालयत् ॥४३॥ (३८) वहाँ पर्वत पर जन्मे हुए उसी तरुण हाथी ने करुणा रहित होकर क्रोध से लपक कर मुनि को देखा । ज्योंहि वह उस मुनि को मारने के लिए उद्यत हुआ, मुनि ने कहा'तुम मुझ भरविन्द राजा को नहीं जानते हो, ऐसा सुनते ही वह (हाथी, मरुभूति गया । (३९) पूर्वजन्म के स्मरण से उसने यह निर्णय किया कि इस राजा का मैं मरुभूति नामक मन्त्री था। इस राजा अरविन्द ने मुनि स्वरूप प्राप्त कर लिया है। अतः यह मेरा यहाँ और परलोक में भी पूज्य है। (४०) समदर्शी, परोपकारशील, विद्वान् मुनिराज ने उसे गृहस्थधर्म का उपदेश दिया। उस हाथी ने भी शुद्ध भावना से उसके उपदेश को दर्शन लाभ के साथ साथ स्पष्ट रूप से स्वीकार किया । (४१) धर्मतत्त्व को जानकर निर्जीव (=निर्दोष) भोजन करता हुआ पापभीरू उसने गृहि-व्रत का आश्रय लिया । (४२) सूखे पेड़ की शाखा आदि से तृण-पत्तों को खाता हुआ वह (हाथी) हस्ती-समुदाय से आलोड़ित होने से पाषाणखण्ड के साथ टकराये हुए (निर्जीव बने ) जल को पीने लगा ।। (४३) व्रत के दूसरे दिन (=पारणा के दिन ) वह ( ऐसा) जल पोता था। तपस्या के दिन बिल्कुल निराहार रहकर चिरात्रि तक गृहस्थधर्म का पालन करता था । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002632
Book TitleParshvanatha Charita Mahakavya
Original Sutra AuthorPadmasundar
AuthorKshama Munshi
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1986
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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