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________________ श्री पद्मसुन्दरसूरिविरचित श्रीपार्श्वनाथचरितमहाकाव्य प्रथमः सर्गः ॥ श्रीपारंगताय नमः || भास्वद्भोगीन्द्रभोगद्युतिततिरनिशं मूर्ध्नि यस्यैकदण्डां धत्ते सप्तातपत्रश्रियमिव नयतः (नुवती) सप्तलोकाधिपत्यम् । तन्वाना भव्यपकेरुहसघनवनोबोधने सप्तसप्तिः स श्रीमत्पार्श्वनाथः शठकमठहठध्वंसकृद् रक्षताद् वः ॥१॥ मातर् ! भारति ! भारतीः सुरसरित्कल्लोललोलोज्ज्वलाः सद्यः पल्लवय प्रसादविशदालङ्कारसारत्विषः । काव्येऽस्मिन् मधुमाधुरीपरिणते शृङ्गारभृङ्गारके श्रीमत्पार्श्वपवित्रचित्रचरितप्रारम्भचेतोहरे ॥२॥ नानान्तरीपनिकरैः परितः परीतः स्वर्णाचलच्छलधृतातपवारणोऽसौ । गाङ्गौघचामरसुवीजित एष जम्बू द्वीपोऽधिराज इव राजति मध्यवर्ती ॥३॥ (१) जिनके मस्तक पर तेजस्वी नागराज के (सात) फणों की , सात लोक के आधिपत्य को प्रशंसित करती हुई और फैलाती हुई प्रभाश्रेणि एक दण्डवाले सात छत्रों की शोभा को मानों निरन्तर धारण करती है; जो भव्यजनरूपी कमलों के सघन वनों को जाग्रत करने में सूर्य हैं और जो दुष्ट कमठ के दानवी बल को नष्ट करने वाले हैं ऐसे वे श्रीयुक्त पाश्व नाथ हमारी रक्षा करें। (२) जिसमें मधुमास की (या शहद की अथवा मद्य की) मधुरता उद्भावित हुई है. जो शृंगार(रस) का पात्र है और जिसमें श्रीमान् पार्श्वनाथ का पवित्र तथा विस्मयकारी चरित प्रारम्भ से ही मनोहारी है, ऐसे इस काव्य में हे माता सरस्वति ! गंगा को चंचल तर गों के समान उज्जवल, प्रसादगुण और विशद अलंकारों को श्रेष्ठ कान्ति को धा.ण करने वाली वाणो को तत्काल पल्लवित करो ॥ (३) अनेक द्वीपसमुदायों से चारों ओर गे व्याप्त है, मेरुपर्वत के बहाने से जिसने छत्र को धारण किया है और जो गंगा के प्रवाहरूपी चामर से अच्छे प्रकार से हवा किया हुआ है, ऐसा यह जम्बूद्वीप (द्वीपों के ) मध्य में साक्षात् सम्राट की तरह सुशोभित है॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002632
Book TitleParshvanatha Charita Mahakavya
Original Sutra AuthorPadmasundar
AuthorKshama Munshi
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1986
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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