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________________ सामञफलसुत्त में निर्ग्रन्थों का वर्णन 'चातुर्याम संवरसंयुत्तो' कहकर किया गया है जिससे यह ज्ञात होता है कि बुद्ध के समय तक निर्ग्रन्थजन चातुर्याम धर्म को ही माना करते थे। उसके पश्चात् महावीर स्वामी ने उन चारों में पाँचवे ब्रह्मचर्यव्रत को जोडा था । इसके साथ ही त्रिपिटक ग्रन्थ से यह भी जान पड़ता है कि निग्रन्थ लोग कम से कम एक वस्त्र का तो अवश्य ही प्रयोग करते थे-जैसा कि अंगुत्तरनिकाय में लिखा हुआ मिलता है . 'तविद भन्ते प्रणेन कस्सपेन लोहिताभिजाति पञता निगण्ठा एकसाटका " इसके साथ ही निग्रन्थ अचेलक (नग्न) रहते थे इसके लिए कोई आधार त्रिपिटकों में प्राप्त नहीं होते हैं । इससे यह सिद्ध होता है कि पाश्व ऐतिहासिक व्यक्ति थे और उन्होंने चातुर्याम धर्म का उपदेश दिया था । जैन आगमों एवं बौद्ध त्रिपिटकों में बहुत से स्थानों पर आजीवक सम्प्रदाय के संस्थापक मखलीपुत्र गोशालक का वर्णन आया है । बुद्धघोष ने दीर्घनिकाय की एक टीका में (समंगलविलासिनी खण्ड १ पृष्ठ १६२) वर्णित किया है कि गोशालक के मन्तव्यानुसार मानव समाज छ: अभिजातियों में विभक्त है । उन अभिजातियों में से तृतीय लोहाभिजाति है। यह लोहाभिजाति निग्रन्थ साधुओं की एक जाति है जो एकशाटिक ( एक वस्त्रधारी ) होते थे ।3 लगता है कि यहां गोशालक ने महावीर के अनुयायियों से पृथक किसी अन्य पस्थित निग्रन्थ सम्प्रदाय की ओर संकेत किया है कारण कि महावीर ने साधु का निर्वस्त्र रहना ही श्रेष्ठ माना है जब कि पार्श्व ने साधुओं को एक वस्त्र धारण करने की अनुमति प्रदान की थी। डॉ० धर्मानन्द कोसम्बी ने अपने ग्रन्थ 'पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म' में लिखा है, "गतम बोधिसत्त्व ने आलार के समाधिमार्ग का अभ्यास किया था । गृहत्याग कर प्रथम तो वे आलार के ही आश्रम में गये और उन्हों ने योग मार्ग का अध्ययन आगे चलाया । आलार ने उन्हें समाधि की सात सीढियां सिखाई । फिर वे उद्रक रामपुत्र के पास गये और उससे समाधि की आठवीं सीढी सीखी, परन्तु उतने से उन्हें सन्तोष नहीं हआ । क्योंकि उस समाधि से मनुष्य के झगड़े खत्म होने सम्भव नहीं था । तब बोधिसत्त्व उद्रक रामपुत्र का आश्रम छोड़ कर राजगृह चले गये। वहाँ के श्रमण सम्प्रदाय में उन्हें शायद निग्रन्थों का चातुर्याम-संवर ही विशेष पसन्द आया, क्योंकि आगे चलकर उन्हों ने जिस आर्य अष्टा1. पाश्वनाथ का चातुर्याम धर्म, धर्मानन्द कोसंबी, बम्बई, १९५७, पृ० १५ । 2. पाश्व' का चातुर्याम धर्म, धर्मानन्द कोसम्बी, पृ० १७ । ३. नोट :-देवेन्द्रमुनि शास्त्री ने अपनी पुस्तक में छः अभिजातियां गोशालक के मन्तव्या नुसार बतलाई हैं परन्तु कोसम्बीजी ने अपनी पुस्तक पाश्व नाथ का चातुर्याम धर्म, पृ. २२ पर, पूरण काश्यप के द्वारा छः अभिजातियां बताई है। भगवान पाव, देवेन्द्रमुनिशास्त्री, पृ. ६३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002632
Book TitleParshvanatha Charita Mahakavya
Original Sutra AuthorPadmasundar
AuthorKshama Munshi
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1986
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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