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उपर्युक्त श्लोक का अर्थ है कि ' श्री पार्श्वनाथ तीथ कर से ढाई सौ वर्ष पश्चात् , इसी समय के भीतर अपनी आयु को लिए हुए भगवान् महावीर हुए ।' 'तदभ्यन्तरवायुः' इसका द्योतक है । इसका तात्पर्य हुआ कि पाश्वनाथ के निर्वाण से महावीर का निर्वाण ढाई सो वष बाद हुआ ।
मुनिश्री नगराज जी ने अपने नवीनतम ग्रन्थ 'आगम और त्रिपिटक: एक अनुशीलन' में सिद्ध किया है कि महावीर का निर्वाण ५२७ ई. पू. में हुआ। अत: पाश्वनाथ का निर्वाण ७७७ ई. पू. (५२७ + २५० ई. पू.) सिद्ध हो ही जाता है।' श्रीपार्श्व की ऐतिहासिकता :
श्रद्धा एवं भक्तिवशात् जैनों ने किसी भी तीर्थ कर की ऐतिहासिकता सिद्ध करने का प्रयत्न नहीं किया । अतः परिणामस्वरूप 'जैन धर्म भगवान् महावीर से प्रारम्भ हुआ' कहा जाने लगा। महावीर से पूर्व के तेईस तीथ करों को मात्र 'पौराणिक' समझ इतिहास की परिधि से बाहर कर दिया गया। जैन चुप रहे पर जर्मन के सुप्रसिद्ध विद्वान् डॉ. जैकोबी, जिन्हों ने जैन एवं बौद्ध धर्म व साहित्य का विशद अध्ययन किया था, शांत न रह सके
और उन्हो ने इन दोनों धर्मो के परस्पर अध्ययन एवं तुलना से यह सिद्ध कर बताया कम से कम श्रीपाश्व' तो अवश्य ऐतिहासिक पुरुष थे। तभी से कई विद्वानों ने पार्श्व की ऐतिहासिकता पर प्रकाश डाला है तथा पार्श्व की ऐतिहासिकता को सर्वविदित बनाया है।
जैन तीथ करों की क्रमशः ऊँचाई और आयुष्य का जो विवरण जैन साहित्य में प्राप्त होता है तथा उन सभी तीथ"करों के जीवनचरित से जुड़ी हुई जो दन्तकथाएँ वहाँ प्रस्तुत हैं उन्हें पढ़ने से तीर्थ करों की ऐतिहासिकता में विद्वान् मनीषी आलोचक जन शंका उठाते रहे हैं । विशेषकर प्रथम बाईस तीथ कर-ऋषभ से लेकर नेमि तक की आयु और ऊंचाई अत्यधिक संदिग्ध है। जैन कथाकारों ने उनके आयुष्य के वष हजारों और लाखो की संख्या में गिनाये हैं। 1. तीथ कर पार्श्वनाथ भक्तिगंगा, पृ. १५ । 2 The Sacred Books of the East. Vol. XLV. Introduction page 21. 3. तीथ करों की ऊँचाई और आयुष्य जैसा कि धर्मानन्द कोसम्बी का पुस्तक पार्श्वनाथ
का चातु"याम धर्म' में पृष्ठ संख्या २ और ३ पर बतायी गयी है : . ऊँचाई आयुष्य के वर्ष
सुपार्श्व २०० ऋषभ ५०० धनुष्य ८४ लाख पूर्व
चन्द्रप्रभ १५० अजित ४५०, ७२ , "
पुष्पदन्त १०० सम्भव ४०० ,, ६० " ,
शीतल ९० अभिनन्दन ३५० धनुष्य ५०
श्रेयांस ८० सुमति ३०० पदमप्रभ २५०
वासुपूज्य ७०
७२ , ,
८४
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