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-पाध्यायविरचितम् ] श्रीसीमन्धरजिनस्तवमम् (३४३.) देवासुरतिरियगणमणुयलोयभासाणुकारिणि एवंविहवक्खाणझुणि सामि विसज्जइ जाम सजइ सुरसुंदरि मिलवि जिणगुणकित्तणि ताम ॥१७॥ भास-- जय जिणवर ! ससहरहारिवयण !
जय कोमलकमलविसालन्यण !। जय सरसअमियरससरिसवयण !
जय महिममहियह देवरयण !॥१८॥ जय विउलमिउलक्खणनिहाण !
दीहरकरपल्लवमलियमाण !। मणवंछियपायवरायपाय !
लवणिमभरभंजियमयगराय ! ॥१९॥ जय मोहनरिंदगइंदसीह !
नीराग ! निरंजण ! जिण ! निरीह !। . गुरुदुरियतिमिरभरहरणदीह !
तियलोयसिरोमणिलद्धलीह ! ॥२०॥ विलसंतअणंतगुणाण ठाण ! __ संवच्छरमिच्छियदिन्नदाग !। भवसिंधुतरणतारणसमत्थु !
पडियहं आलंबणु देहु हत्थु ॥२१॥ अइउत्तमखत्तियवंसजाय !
सिवसुंदरिसुक्खनिबद्धराय ! ।