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________________ ( २६४) जैनस्तात्रसन्दाहे [श्रीधर्मोष गुग्गुलि–गलोअमाई छिण्णरुहा कटुओ बहुलछल्ली । इचाइ खल्लु अणेगे भेया उ अणंतकायाणं ॥१५॥ प्रत्येकवनस्पतेर्लक्षणं प्रकाराश्वः-- जेसिक्किक्कि सरीरे इक्किक्कु जिउ उ ते उ पत्तेआ । फल-फुल्ल-मूल-पत्ता तण-कट्ठा हरिअबीअकुली ॥१६॥ सिअवत्ताई पिहु पंखुडीअजिआ जाइमल्लिआइ पुणो । नालिअबद्धेगजिआ दुजिआ संघाडधन्नाई ॥१७॥ अवस्थिति: पत्तेअवणे मुत्तुं पण पुढवाई दुहा सुहुमथूला। सुहुमा उ सव्वलोए संति निलागणिजलअगिज्झा ॥१८॥ द्वीन्द्रियप्रकाराः चंदण-संख-कवड्य-लहकालस-सुत्ति-जलुअ-गंडोला । मेहर-इअरकायर किमिमाइ वहाइ बेइंदी ॥१९॥ त्रीन्द्रियजीवभेदाः मंकुण-जूआ-पिसुआ कुंथुद्देहिअ-पिपीलि-मकोड़ा । गद्दय-चोरकीडा चंचड-गोगीड-धण्णाडा ॥२०॥ गुम्मिय-गोमयकोडा इल्ली घियबल्ली जा उ अ महल्ला । तिण-गोवालिअ-इलिआ तेइंदिअ इंदगोवाई ॥२१॥ चतुरिन्द्रियजीवप्रकाराः-- चउरिंदि मच्छु-कुत्तिम दंस-मसा-सलम-कोकिला कविला । कंसारि-डोलि-विंछिअ-ढंकण-भमरी-भमर-तिश ॥२२॥
SR No.002613
Book TitleJainstotrasandohe Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChaturvijay
PublisherSarabhai Manilal Nawab
Publication Year1932
Total Pages662
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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