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२५२५ ]
नवमभवि जायवजरसंधविरोहु तहा हि -
[२५२२]
तुम्ह सयलहं निवहं आइसइ जरसंधु नरिंदु जह जेहिं मज्झ जामाउ निहणिउ । ते दो-वि हु कण्ह-वल पेसवेसु विक्खेवु विहणिउ ॥ दुद्ध पियंतहं गोउलि वि ताहं क लग्ग अ-विज्ज । मत्थह मज्झि ण उग्गलहिं मंदालोचिय कज्ज ।
[२५२३]
दोण्ह गोवहं कज्जि तुम्हहं वि जरसंघ-नराहिविण सह विरोहु नो जुत्ति-जुत्तउ । दोसारिह अप्पिउण सुहिण नियय-रज्जाइं चिंतउ ॥ अह सोमग-दूयह पुरउ समुदविजय-नरनाहु । भणइ - सम्मु परिभावि तुहुं एयहं को अवराहु ॥
__ [२५२४]
विणु वि दोसहं हणिवि छ-व्वंधु वर-लक्खण-रूव-धर जाय-मेत्त कंसिण निवाइय । कण्हस्स वि हणण-कइ वाल उ[ण] वि परिमुक्क घाइय॥ पत्तावसरिण कण्हिण वि जइ निहणिउ निय-सत्तु । ता खत्तिय-कुल-संभविहि भन्नइ किह-णु अ-जुत्तु ॥
[२५२५]
रुडु एयहं निवइ जरसंधु जामाउइ निहणियइ तम्मि रुटुइ हि वंधु-घाइण । सो निहणिउ एगु तह सावराहु निय-पुरिसयारिण ॥ एयह वंधव हय वहुय सिसु अविहिय-अवराह । जुत्तु अ-जुत्तु व कवणु इय तं पि कहसु दुय-नाह ॥ २५२५. ७. क. अवराहु.
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