________________
दो शब्द गौतम बुद्ध ने अपने शिष्यों से कहा था-भिक्षुत्रो ! मैं जो कुछ कहूँ वह परम्परागत है इसलिए सच मत मानना, लौकिक न्याय है ऐसा मानकर सच मत मानना, सुन्दर लगता है ऐसा समभ.कर सच मत मानना, तुम्हारी श्रद्धा का पोषक है इसलिये सच मत मानना, मैं शास्ता हूँ, पूज्य हूँ, ऐसा मानकर सच मत मानना, ऐसा ही होगा ऐसा मानकर सच मत मानना, किन्तु तुम्हारा हृदय और मस्तिष्क जिस बात को विवेकपूर्वक ग्रहण करते हों उसे ही सत्य मानना । मैं अपनी पुस्तक 'जैन दर्शन और आधुनिक विज्ञान' के सम्बन्ध में इसी उक्ति को इस प्रकार दुहराना चाहूँगा कि पाठक केवल इसलिये इस पुस्तक के विषय में उपेक्षाशील न हों कि लेखक के पास दर्शनाचार्य व विज्ञान विशेषज्ञ की कोई उपाधि नहीं है । किन्तु वे एक तटस्थ अध्ययन के आधार से ही प्रतिपादित विषय की यथार्थता का मूल्यांकन करें।
एक जैन परम्परा में संदीक्षित होने के कारण दर्शन तो जीवन का एक सहज विषय था ही, किन्तु न जाने क्यों आधुनिक विज्ञान की नित नई गवेषणामों को पढ़ने में भी सदेव मेरी अभिरुचि रही। लगभग १५ वर्षों से तो मैं इस विषय में दत्तचित्त रहा ही हूँ। कुछ सामयिक स्थितियों एवं श्रद्धास्पद प्राचार्य श्री तुलसी की पुनीत प्रेरणानों के परिणामस्वरूप अब तो दर्शन और विज्ञान का समीक्षात्मक अध्ययन जीवन का एक सुनिश्चित विषय बन ही गया है।
एक सामान्य विवेचक की अपेक्षा एक समीक्षात्मक विवेचक को दोनों ही विषयों का बहुत ही व्यवस्थित और विश्वस्त अध्ययन कर लेना पड़ता है । हो सकता है अपने प्रतिपादन में उन दोनों विषयों के बहुत ही सूक्ष्म अंश ग्राह्य होते हों। स्याद्वाद और सापेक्षवाद, परमाणुवाद, आत्म-अस्तित्व, भू-भ्रमरण और ईथर आदि विषयों पर समीक्षात्मक लिखने में जो मुझे पायास उठाना पड़ा है, यदि किसी लेखक का स्वतंत्र उद्देश्य होता तो उन्हीं पांच विषयों पर प्रबन्ध (Thesis) लिखने में भी इससे अधिक आयास नहीं उठाना पड़ता। उक्त विषयों पर लिखने से पूर्व उनका एक समग्र अध्ययन कर लेना मैंने अपना ध्येय समझा और तदनकूल ही प्रवृत्त हुआ। फिर भी मानवीय
Jain Education International 2010 04
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org