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जैन दर्शन और आधुनिक विज्ञान उत्पन्न करने वाला होगा। वर्तुलाकार वायु चलेगी जिससे धूलि आदि एकत्रित होगी । पुनः पुनः धूलि उड़ने से दशों दिशायें रजःसहित हो जायेंगी। धुलि से मलिन अन्धकार समूह के हो जाने से प्रकाश का आविर्भाव बहुत कठिनता से होगा। समय की रुक्षता से चन्द्र में अधिक शीत होगा और सूर्य भी अधिक तपेगा और उस क्षेत्र में बार-बार बहुत परस-विरस मेघ, क्षारमेष, विषमेघ, विद्युन्मेघ, अमनोज्ञमेघ, प्रचण्ड वाय वाले मेघ बरमेंगे। इससे भरत क्षेत्र में ग्राम, नगर, पाटण, द्रोणमुख व पाश्रम, में रहने वाले मनुष्य, चतुष्पद, पक्षियों के समूह व आम्र, प्रशोक आदि का विध्वंस होगा। वैताड्य पर्वत को छोड़कर सब पर्वतों का नाश होगा। गंगा व सिन्धु दो नदियाँ रहेंगी। उस समय भरत क्षेत्र की भूमि अग्निभूत, मर्मरभत, भस्मभूत हो जायेगी। पृथ्वी पर चलने वाले जीवों को बहुत कष्ट होगा। उस समय भरत-क्षेत्र के मनुष्य खराब वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श वाले तथा अप्रिय. . अमनोज्ञ वचन बोलने वाले होंगे; तथा वे ऊँट की तरह वक्रंचाल चलने वाले, शरीर के विषम संधिबन्ध को धारण करने वाले ऊँची-नीची विषम पसलियों व हड्डी वाले कुरूप होंगे। उत्कृष्ट एक हाथ की अवगाहना और २० वर्ष की आयु उनकी होगी। उस समय गङ्गा, सिन्धु नदी का विस्तार रथ के मार्ग जितना होगा। उस समय बहुत मत्स्य आदि जल जन्तु. रहेंगे। पानी बहुत थोड़ा रहेगा । मनुष्य केवल बीजरूप ही बचेंगे । वे उक्त नदियों के किनारे बिलों में रहेंगे । सूर्योदय से एक महूर्त पहले, सूर्यास्त के एक मुहूर्त पश्चात् बिलों से निकलेंगे और मत्स्य आदि को उरण रेती में पकाकर खायेंगे। यह स्थिति २१००० वर्षों तक रहेगी' ।" यह ह्रास का अन्तिम समय होता है। इसके बाद पुन: उत्सर्पिणी का अर्ध कालचक्र प्रारम्भ होता है, जिस से क्रमशः पृथ्वी का वातावरण पुन: सुधरने लगता है। शुद्ध हवायें चलती है, स्निग्ध मेघ बरसते हैं और अनुकल तापमान होते जाते हैं। बिलों में व अन्य सुरक्षित स्थानों में रहे मनुष्य आदि जंगम प्राणी पुन' पृथ्वी के मुक्त वातावरण में घूमने लगते हैं। सष्टि बढ़ती है; गाँवों व नगरों का निर्माण होता जाता है और उत्सपिणी के अन्तिम दिनों तक पृथ्वी का समस्त वातावरण निर्माण के शिखर पर पहुँच जाता है। इस प्रकार एक कालचक्र सम्पन्न होता है। इस कालचक्र का बर्तन हमारे इस क्षेत्र की तरह विश्व के अन्य सभी क्षेत्रों में नहीं होता। प्रकृति के इतिहास में होने वाले इस अध्याय परिवर्तन को लोग प्रलय और सष्टि कहते हैं। जैन विचारधारा के अनुसार प्रलय का अर्थ प्रात्यन्तिक नाश नहीं; वह ध्वंस (ह्रास) की अन्तिम मर्यादा है। बहुत कुछ सम्भव है कि
१. भगवती शतक ७, उद्देशक ६ । २. जम्बद्वीप पन्नत्ति कालाधिकार ।
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