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श्रात्म-श्रस्तित्व
कहें या नवीनतम विज्ञान के शब्दों में कण तरंग कहें, उसी की ये नाना परिणतियाँ प्रत्यक्ष दीखती हैं। मिट्टी से यदि किसी को कन्द तक की परिणति मान्य है तो उसे कन्द की परिणति मिट्टी में भी मान्य होगी । इसका हेतु भारतीय दर्शनों में प्रतिपादित वस्तु की अनन्त धर्मात्मकता है न कि श्रसद् की कोई उत्पत्ति । पूर्वोक्त तर्क यहाँ भी लागू है ही कि उदाहरण जड़ से जड़ उत्पन्न होने की बात कहता है ; जड़ से चेतन की नहीं ।
३ – अंटाघर में बिलियर्ड खेलने वाले देखते हैं कि मेज पर दो विरोधी दिशाओं की ओर गति रखने वाले, गेंद चल रहे हैं । यदि उनकी गति विरोधी न हो तो उनका मिलन न होगा। यदि विरोधी गति होने से एक एक तरफ से आता है दूसरा दूसरी तरफ से तो दोनों विरोधियों का समागम होता है । दो विरोधी गेंदों का जब समागम होता है तो उनके गुणों में भी परिवर्तन हो जाता है । एक घंटा पूर्व को जा रहा था एक उत्तर को। दोनों मिलते हैं—टकराते हैं । अब उनके वेग (गति) की दिशा पूर्व या उत्तर की दिशा में न रह कर नई दिशा होती है । यह गति का गुरणात्मक परिवर्तन है' ।
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उदाहरण में शब्दों की सजावट चाहे कितनी ही सुन्दर हो अभिमत तथ्य को सिद्ध करने की यथार्थता कुछ भी नहीं है । यह उदाहरण तो पिछले दो उदाहरणों से भी लचीला है । जल और कन्द के होने में जड़ के बाह्य स्वरूप तो एकदम बदलते थे यहाँ तो दिशा बदलकर दिशा ही रह गई ।
वैज्ञानिक भौतिकवादी परिणामात्मक परिवर्तन की बात अपनी मत सिद्धि के लिये बड़े ठाठ से रखते हैं । वे कहते हैं कि गुणात्मक परिवर्तन अपनी निश्चित परिणाम पर पहुँचकर एक प्राश्चर्य प्रद विधि से होता है । इसीलिये गुणात्मक परिवर्तन प्रकृति सिद्ध नियम है । जैसे - ( १ ) वर्फ बनते समय पानी धीरे-धीरे गाढ़ा नहीं बनता बल्कि टेम्प्रेचर गिरते-गिरते जैसे ही हिम बिन्दु (३२° फार्नहाइट ०° सेन्टीग्रेड) पर पहुँचता है तो वह एकाएक बर्फ हो जाता है ।
२- पानी गर्म होते-होते ज्योंही २१० डिग्री फार्नहाइट पर पहुँचता है, वह एकाएक भाप बनकर उड़ जाता है ।
३- दूकानदार तोलता है इतनी बारीकी से कि अन्त में वह दोनों पड़ों को बराबर करने के लिये खसखस के दाने एक एक करके डाल रहा है । शेष का एक दाना जब तक नहीं डाला तब तक डांडी सीधी नहीं है । उस एक के डालते ही डांडी सीधी हो जाती है और एक अधिक डालते ही फिर डांडी झुक जाती है ।
१. वैज्ञानिक भौतिकवाद पृ० १५७ |
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