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श्रात्म-प्रस्तित्व
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बाप है और अपने बाप की अपेक्षा से बेटा । अस्तु ; विरोधी समागम की बात भार -- तीयों के लिये कोई नई नहीं और न वह मार्क्स की ही कोई नई सूझ है । आज से सहस्रों वर्ष पूर्व भारतीय दार्शनिक अपनी तीव्र मनीषा से इस विषय का मन्थन करते रहे हैं ।
गुणात्मक परिवर्तन - द्वन्द्वात्मक भौतिकवादियों की सबसे बड़ी भूल यही हुई कि गुणात्मक परिवर्तन का अर्थ उन्होंने यह माना कि जो नहीं था वह उत्पन्न हुआ । वस्तु के यौगिक व स्वाभाविक परिवर्तन को देखकर वे इस मन्तव्य पर पहुँचे ; पर भारतीय दार्शनिक जगत् की परिवर्तनशीलता को सहस्रों वर्ष पूर्व इससे भी वहुत आगे तक परख चुके थे । जैन दार्शनिकों ने तो वस्तु का धर्म ही त्रिविधात्मक बताया, 'उत्पाद व्यय ध्रौव्य युक्तं सत्' अर्थात् वस्तु वह है जिसके अन्तर में उत्पत्ति, नाश और निश्चलता एक साथ चलते हैं । प्रत्येक वस्तु में पूर्व पर्याय (स्वभाव) का नाश, उत्तर पर्याय की उत्पत्ति व मूल स्वभाव की निश्चलता वर्तमान है । उन्होंने बताया, "अनन्त धर्मात्मकं 'वस्तु' अर्थात् प्रत्येक वस्तु में अनन्त स्वभाव हैं । उनमें से जीर्ण का व्यय है, नवीन का उत्पाद है, और वस्तुत्त्व का ध्रौव्य है । उदाहरणार्थ - जैसे सोना घट, मुकुट श्रादि नाना स्थितियों में बदलता है, पर उसका स्वर्णत्व स्थिर रहता है । इसी प्रकार इस रूपी ब्रह्माण्ड के मूल उपादान परमाणु प्रस्तुत स्वरूप को छोड़ते हैं, अनागत को ग्रहण करते हैं किन्तु उनका परमाणुत्व सदा शाश्वत रहता है । जैन दर्शन के अनुसार कोई रूपी धर्म ऐसा नहीं है जिसका अस्तित्व परमाणुत्रों में न हो । विश्व संघटना का दूसरा उपादान जीव- श्रात्मा व चेतन है । वह भी अनन्त धर्मात्मक है और उत्पाद, व्यय तथा धौव्य की त्रिपदी में बर्तता रहता है, पर जड़ का चेतन अत्यन्त विरोधी है । इसलिये जड़ का चेतन में और चेतन का जड़ में गुणात्मक परिवर्तन नहीं हो सकता। इसी तथ्य की पुष्टि गीताकार ने इन शब्दों में की है - " नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः " अर्थात् असद् उत्पन्न नहीं होता और सद् का विनाश नहीं होता । द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी कहते हैं कि गुणात्मक परिवर्तन से जो भाव पैदा होता है वह उस वस्तु में पहले किसी अंश में नहीं था । वहाँ तो नितान्त ग्रसत् की उत्पत्ति होती है । अतः यह मानना चाहिये कि जड़ के गुणात्मक परिवर्तन से चेतना पैदा होती है ।
आज का युवक मानस इस युक्ति से प्रभावित है । उसे लगता है कि मार्क्स ने बहुत ही नवीन और बहुत ही गहरी बात कह दी है । पर किसी भी प्रौढ़ दार्शनिक को यह बात आकर्षित नहीं करती । उसकी दुनिया में तो यही विषय मार्क्स से सहस्रों वर्ष पूर्व इससे भी आगे तक मथा जा चुका है। वह तो कहता है कि बृहस्पति के चार्वाक दर्शन को ही द्वन्द्व और त्रिपुटी का चोगा पहना कर वैज्ञानिक भौतिकवाद बना दिया गया है । लोकायतिक दर्शन जहाँ जड़ भूतों के संयोग में चैतन्य का उदय बताता
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