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(४) श्रीशदवैकालिकनियुक्तिः ]
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दिटुंतसुद्धि एसा उपसंहारो य सुत्तनिट्ठिो । संति विज्जंतित्ति य संति सिद्धि च साहेति ॥१६॥ धारेइ तं तु दव्वं तं दधविहङ्गमं वियाणाहि।
भावे विहंगमो पुण गुणसन्नासिद्धिओ दुविहो ।। १७ ।। 5 विहमागास भण्णइ गुणसिद्धी तप्पइट्ठिओ लोगो।
तेण उ विहङ्गमो सो भावत्थो वा गई दुविहा ।। १८ ।। भावगई कम्मगई भावगई पप्प अत्थिकाया उ। सव्वे विहंगमा खलु कम्मगईए इमे भेया ।। १६ ।।
विहगगई चलणगई कम्मगई उ समासओ दुविहा । 10 तदुदयवेययजीवा विहंगमा पप्प विहगगई ॥ १२० ।।
चलनकम्मगई खलु पडुच्च संसारिणो भवे जीवा। पोग्गलदव्वाई वा विहंगमा एस गुणसिद्धी ॥ २१ ॥ सन्नासिद्धि पप्पा विहंगमा होति पक्खिणो सव्वे ।
इहई पुण अहिगारो विहासगमणेहि भमरेहि ॥ २२ ।। 15 दाणेति दत्तगिण्हण भत्ते भज सेव फासुगेण्हणया।
एसणतिगंमि निरया उवसंहारस्स सुद्धि इमा ।। २३ ।। अवि भमरमहयरिगणा अविदितं आवियंति कुसुमरसं। समणा पुण भगवन्तो नादिन्नं भोत्तुमिच्छति ।। २४ ।।
अस्संजएहि भमरेहि जइ समा संजया खलु भवति । 20 एवं (यं) उवमं किच्चा नणं अस्संजया समणा ।। २५ ।।
उवमा खलु एस कया पुव्वुत्ता देसलक्खणोवणया । अणिययवित्तिनिमित्तं अहिंसप्रणुपालणट्ठाए ।। २६ ॥
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