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________________ (४) श्रीदशवकालिकनियुक्तिः ] [ ३३७ जो तेसु धम्मसद्दो सो उवयारेण निच्छएण इहं। जह सोहसह. सोहे पाहण्णुवयारओऽण्णस्थ ॥९५॥ जह भमरोत्ति य एत्थं दिढतो होइ आहरणदेसे। चंदमुहि दारिगेयं सोमत्तवहारण ण सेसं ॥९६ ॥ 5 एवं भमराहरणे अणिययवित्तित्तणं न सेसाणं । गहणं दिटुंतविसुद्धि सुत्त भणिया इमा चऽन्ना ।। ६७ ।। एस्थ य मणिज्ज कोई समणाणे कोरए सुविहियाणं । पागोवजीविणो ति य लिप्पंतारंभवोसेणं ।। ९८॥ वासइ न तणस्स कए न तणं बड्डइ कए मयकुलार्ण । 10 न य रुक्खा सयसाला फुल्लन्ति कए महुयराणं ।। ९९॥ अग्गिम्मि हवी हयइ आइच्चो तेण पोरिणमओ संतो। वरिसइ पयाहियाए तेजोसहिओ परोहंति ॥ १० ॥ कि दुरिभक्खं जायइ ? जइ एवं अह भवे दुरिट्ठतु। कि जायइ सवस्था दुग्भिक्खं अह भवे इंदो? ॥१०१ ।। 15 वासइ तो कि विग्धं निग्घायाहिं जायए तस्स । अह वासइ उउसमए न वासई तो सणट्टाए ।। १०२ ।। कि च दुमा पुप्फति भमराणं कारणा अहासमयं । मा भमरमहुयरिगणा किलामएज्जा प्रणाहारा ।। १०३ ।। कस्सइ बुद्धी एसा वित्ती उवकप्पिया पयावरणा। सत्तार्ण तेण दुमा पुष्फति महुयरिगट्ठा ॥१०४ ।। तं न भवह जेण दुमा नामागोयस्स पुग्धविहियस्स । उदएणं पुप्फफलं निवत्तयंती इमं चनं ॥ १०५ ॥ Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002598
Book TitleNiryukti Sangraha
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorJinendrasuri
PublisherHarshpushpamrut Jain Granthmala
Publication Year1989
Total Pages624
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Spiritual
File Size19 MB
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