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(२) श्रीमती ओघनियुक्तिः
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॥ अथ वीरस्तवः ।।
जयई नव नलिन कुवलय वियसिय सयवत्तं पत्तल दलच्छो वीरो गइ दमयगल सललिय गइ विक्कमो भयवं ॥१॥ अञ्जवि वहइ सुतित्थं अखंडियं जस्स भरहवासंमि । सो बद्धमाण-सामी तिलुक दिवायरो जयउ ॥२॥ गाहा जुयलेण जिणं मय-मोह-विवज्जियं जिय-कसायं । थोसामी तिसंज्झागं तं निसंगं महावीरं ॥३॥ सुकुमाल-धीर-सोमारत्त-कसिण-पांडुरा सिरि-निकेया। सियंकुस-गहभीरु अल-थल-नहमंडणा तिनि ॥४॥ न चयन्ति वीरलीलं हाउं जइ सुरहिमत्त पडिपुन्ना । पंकय-गइंद-चंदा-लोयण-चंकमिय-मुहाणं ॥५॥ एवं वीरजिणिंदो अच्छर-गण-संग-संथुओ भयवं । पायलित्त-मई-महीओ दिसउ खयं सम्बदुरिआणं ॥६॥
इति श्रीपाद-लिप्तमूरि-विरचितः श्री वीरस्तवः संपूर्णः ।।
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