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________________ ६-प्रत्याख्यानध्ययनम् :: १२-प्रत्याख्याननियुक्तिः ] [ १७७ ॥ ६ ॥ अथ षष्ठं प्रत्याख्यानध्ययनम् ॥ ॥ १२ ॥ अथ प्रत्याख्याननियुक्तिः ॥ पच्चक्खाणं पच्चक्खाम्रो पच्चक्खेयं च आणुपुवीए। परिसा कहणविही या फलं च आईइ छन्भेमा ॥ १५६६ ।। 5 मूलगुणावि य दुविहा समणाणं चेव सावयाणं च । ते पुण विभजमाणा पंचविहा हुंति नायव्वा ।। १॥ (प्र०) सावयधम्मस्स विहिं वुच्छामी धीरपुरिसपन्न । जं चरिऊण सुविहिया गिहिणोवि सुहाई पावंति ॥ १५७०॥ साभिग्गहा य निरभिग्गहा य प्रोहेण सावया दुविहा। 10 ते पुण विभज्जमाणा प्रदविहा हुँति नायव्वा ॥ ७१ ।। दुविहतिविहेण पढमो दुविह दुविहेणं बीयनो होइ । दुविहं एगविहेणं एगविहं चेव तिविहेणं ॥७२ ॥ एगविहं दुविहेण इविकषकविहेण छट्टो होइ। उत्तरगुण सत्तमओ अविरतओ चेव अट्टमओ ।।७३ ॥ पणय च उक्कं च तिगं दुगं एगं च गिण्हइ वयाई । अहवावि उत्तरगुणे अहवावि न गिण्हई किचि ॥ ७४ ।। निस्संकिय निवकंखिय निस्वितिगिच्छा अमूढदिट्टी य ।। घोरवयणमि एए बत्तीसं सावया भणिया ॥१५७५ ।। पंचण्हमणुवयाणं इक्कदुगति गवउक्कपणगेहिं । 20 पंचगदसदसपण इक्कगे य संजोग कायव्वा ।।१।। (अन्यक०) वयमिक्कगसजोगाण हंति पंचण्ह तीसई भंगा। Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002598
Book TitleNiryukti Sangraha
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorJinendrasuri
PublisherHarshpushpamrut Jain Granthmala
Publication Year1989
Total Pages624
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Spiritual
File Size19 MB
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