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________________ है। जो लोग प्रणिधान की इस विधि को समझेंगे उनके लिये संकल्प-सिद्धि असम्भव नहीं है । यहाँ उस संकल्प शक्ति को विकसित करने के मार्ग का विवेचन करने का अवकाश नहीं है, परन्तु एक छोटे दोहे में कहा है वह समझेंगे तो विशेष ध्यानमें आ जायेगा : 'प्रभु नाम की औषधि, खरे भाव से खाय । रोग शोक आवे नहीं, सवि संकट मिट जाय ॥' यहाँ बताया गया 'खरा (सच्चा) भाव' यही संकल्प-सिद्धि का मार्ग है । श्री भक्तामर स्तोत्र की प्रार्थना का आरम्भ ही संकल्पसिद्धि से हुआ है । अतः हमें भी अवश्य ही संकल्प प्रदान करता है । मन भी पदार्थ है, शक्ति है और शक्ति का शक्ति में रूपांतरण अवश्य हो ही सकता है । किसी भी एक नियत काल के अन्तराल में यदि आप अपने संकल्प के अतिरिक्त अन्य कुछ भी न सोचें तो आपका संकल्प सिद्ध हुए बिना रह नहीं सकता है । आराध्य की ओर की अश्रद्धा, सिद्धि प्रति सन्देह और संकल्पान्तर का चिन्तन, संकल्प-शक्ति का नाश करता है । अतः संकल्प-सिद्धि चाहनेवाले ने उपर्युक्त सूचना का ध्यान रखकर पाठ किया हो या कल्प के अनुसार आराधना की होगी तो उस संकल्प के मुताबिक अवश्य सिद्धि मिलेगी । जिस प्रकार किसी भी शक्ति का विकास क्रमिक होता है और प्रत्येक व्यक्ति किसी एक निश्चित हद तक ही आगे बढ़ सकता है, वैसे ही इस संकल्प शक्ति का धीरे धीरे विकास साधना पड़ता है और पात्रता हो तब तक विकास सम्भव होता है । जब आराधक को अपनी सिद्धि के सम्बन्ध में कुतूहल उत्पन्न होता है या उसे अपनी सिद्धि किसी को दिखा देने की इच्छा होती है-प्रदर्शन वृत्ति बढ़ती जाती है तब उसकी संकल्प-सिद्धि घटती जाती है । कभी तो प्राप्त हुई सारी ही-शक्ति नष्ट हो जाती है । यदि सम्यक् विधि का ख्याल रहे तो श्री भक्तामर स्तोत्र भी श्राप और अनुग्रह का सामर्थ्यवाला और अभीष्ट-सिद्धि-प्रदान करने में कल्पवृक्ष जैसा है। जिन आराधकों को अपनी संकल्पशक्ति विकसित करनी हो उन्हें चाहिये कि वे भक्तामर स्तोत्र के प्रयोग अवश्यमेव करें । परन्तु एक बात का पुनः पुनः लक्ष्य रखने योग्य है कि हमारा मानव जन्म आत्मा से परमात्मा बनने के लिये है । इसलिये किसी भी प्रकार की कषाय की जड़ें आत्मा में गहरी उतर न जायें उस का ध्यान रखें । साधक-आराधक साधन-व्यामोह न रखें । बहुत लोगों के मन में एक स्तोत्र या एक मंत्र की आराधना चलती हो तब-अन्य स्तोत्र या मंत्र के लिये व्यामोह जगता है । बारबार अपने आराध्य स्तोत्रों को बदलते जाते है । एक ही साथ अनेक स्तोत्र और मंत्र की आराधना करते है । इससे उनमें चांचल्य उत्पन्न होता है और संकल्प-सिद्धि की शक्ति नष्ट होती है। इसलिये ही स्मरण के लिये स्मरण के रूप में आप चाहे जितने स्तोत्र गिने, परन्तु आराधना-साधना के लिये आराध्य तो एक ही स्तोत्र को बनाना चाहिए | कौन-सा स्तोत्र अधिक शक्तिवाला है ? ऐसा प्रश्न करने के बजाय कौन-से-स्तोत्र में अपनी आत्मा सहज रूप से लीन हो जाती है ऐसा ही आराधक सोचें । अनेक स्तोत्र है, अनेक रूचि के प्रकार है । परन्तु इससे किसी भी स्तोत्र में अल्प या अधिक शक्ति है ऐसा व्यामोह प्रगट नहीं होने दें। शास्त्र में तो कहा गया है कि ___ "श्रूयन्ते चानंताः सामायिक मात्रपद सिद्धाः ।" अर्थात-सुनने में आता है कि अनेक आत्माएँ केवल 'सामायिक' इस पद से ही सिद्ध हुए है। पद यह प्राप्ति और पदार्थ तक पहुँचने का पंथ है । पद यह मंझिल नहीं है परन्तु पद यह मंझिल तक पहुँचने का मार्ग है । महत्त्व की बात यह नहीं है कि किस मार्ग से मंझिल तक पहुँचा जायेगा, परन्तु प्रमुख मुद्दा है मंझिल तक पहुँचने की दृढता । श्री भक्तामर स्तोत्र के आराधक किसी भी प्रकार के प्रेय और श्रेय इस स्तवना के द्वारा प्राप्त कर सकते है इस में संदेह नहीं है । ___ अंत में श्री भक्तामर स्तोत्र के लिए जान लें कि श्री भक्तामर स्तोत्र भी मंत्रविद्या से साध्य (१) शांतिक-पौष्टिक (२) वशीकरण (३) स्तम्भन (४) सर्वभयहरण (५) उच्चारण-मारण करने का महान सामर्थ्य रखनेवाला एक महान स्तोत्र है, और हमें मुक्ति की प्राप्ति का प्रमुख लक्ष्य रखकर, प्रमुख आशय रखकर, आत्मस्वरूप की शुद्धि मिलाकर सिद्धि प्राप्त करनी है | ॐ भक्तामर से हमें समभाव का और स्वभाव का वशीकरण करना है । ॐ भक्तामर से हमें दोषों का आश्रवों का स्तम्भन करना है । भक्तामर से हमें गढे हुए मलिन संस्कारो का उच्चाटन और भारण करना है। ॐ भक्तामर से हमें आत्मा की और विश्व की शांति करनी है । 7D ॐ भक्तामर से हमें वैराग्यभाव और वीतरागभाव की पुष्टि करनी है। इस प्रकार करने से आध्यात्मिक षड़क्रम को सिद्ध कर के श्री भक्तामर स्तोत्र से अवश अर्थात् विवश-हमारे पास दौडकर आने उत्सुक बनी हुई द्रव्य-भाव लक्ष्मी को ग्रहण कर के, छोटा या बडा कोई भी "मान" हमें स्पर्श कर न सके ऐसे "तुंग" (शिखर) उच्च बनकर, सही अर्थ में मानतुंग बनना है । સમ KARNAL 1.60000000 (२५२ आराधना दर्शन XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.002588
Book TitleBhaktamara Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajyashsuri
PublisherJain Dharm Fund Pedhi Bharuch
Publication Year1997
Total Pages436
LanguageSanskrit, English, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size50 MB
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