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________________ अगर कोई आचार्य भगवंत ने ये चार गाथाएँ मूल काव्य में से कम नहीं की, तो किसी ने चार गाथाएँ बढ़ाई है, ये कैसे मान ले ? ये चार गाथाएँ बढ़ाई गयी हैं... यह बात स्पष्ट है... कारण आचार्य मानतुंगसूरिजी ने मात्र ४४ गाथा की ही रचना की थी। ये गाथाएँ बढ़ाई गयी हैं, इसे हम दूसरे दृष्टिकोण एवं प्रमाणों से देखें तो पता चलता हैं कि श्री कल्याण मंदिर स्तोत्र में तीर्थंकर परमात्मा के आठ प्रातिहार्यो का वर्णन हैं... जब कि श्री भक्तामर स्तोत्र में मात्र चार प्रातिहार्यो का ही वर्णन हैं । अतः किसी विद्वान आचार्य या साधक को और चार प्रातिहायों के वर्णन की कमी महसूस हुई होगी और उन्होंने उसकी पूर्ति के लिए चार प्रातिहार्यो के वर्णन की गाथाएँ बना कर बाद में इस स्तोत्र में जोड़ दी होगी । प्राचीन स्तोत्रों में गाथाओं की वृद्धि कैसे हो जाती है ? I प्राचीन काल में हस्त लिखित प्रतों का प्रचलन था। अक्सर उन हस्त लिखित प्रतों की नकल (कॉपी) वैसे लिपीकारक करते थे जिन्हें संस्कृत भाषा का इतना गहरा ज्ञान नहीं होता था । कई विद्वान साधु भगवंत अपनी खुद की प्रत में कई बार एक ही विषय की वृद्धि करते हुए एवं उसे पुष्ट करते हुए समर्थन करने वाले श्लोक, चाहे स्वयं द्वारा रचित हो या दूसरों के द्वारा रचित प्रत के हासियें में लिखकर रखते थे । लिपी कारक कई बार लिपी (कॉपी) करते वक्त हासियें में लिखे गए श्लोक भी मूल प्रत में शामिल कर लेते थे । यही वजह हैं कि इस प्रक्रिया से मूल ग्रन्थों में अन्य विद्वानो के बनाये हुये भी बहुत से श्लोक सम्मिलित हो गये और मूल ग्रन्थ बहुत बड़े हो गए। अन्य धर्म शास्त्रों में भी ऐसा होता आया हैं। उदाहरणार्थ :- मूल "महाभारत" के श्री व्यासजी रचित एक लाख श्लोक ही हैं परन्तु इस प्रक्रिया से ७५००० नये श्लोक जोडे गये । इस तरह श्लोकों को जोड़ने की प्रक्रिया प्राचीन काल से चली आ रही है । परन्तु श्लोकों को निकाल देने या कम करने की पद्धति प्रचलित नही हैं । मूल ग्रन्थ कर्ता के ग्रन्थ में श्लोकों को जोड़ देना या निकाल देना अत्यंत अनुचित प्रवृति है हम उसे साहित्यिक अपराध कह सकते है । बत्तीस से पैंतीस (३२ से ३५) ये चार श्लोक बढ़ाने में आये हैं... इसका कोई दूसरा प्रमाण हैं ? • गाथा ३२ से ३५ तक में दुर्दुभि, सुर पुष्प वृष्टि, भामंडल एवं दिव्य ध्वनि इन चार प्रातिहार्यो का वर्णन भिन्न-भिन्न चार जोड़ों में किया हैं... इस प्रकार कुल १६ श्लोक हुए। इन श्लोकों को हमने वर्षो पूर्व एक पुस्तक में पढ़ा भी हैं... यह पुस्तक हमें मद्रास के पंड़ित श्री कुंवरजी - भाई ने दी थी । अब प्रयत्न करने पर भी हमें वह पुस्तक मिल नहीं रही हैं, पर भक्तामर में अभी ३२ से ३५ तक जो गाथाएँ बोली जाती हैं, उनसे अतिरिक्त ४ गाथा का एक जोड श्री हीरालाल रसिकलाल संपादित श्री भक्तामर ग्रंथ में मिलता है। इस तरह यदि उन चार जोड़ों को मूल भक्तामर स्तोत्र में जोड़े जाये तो कुल १६ श्लोको को मिलाने से कुल (४४+१६ ) = ६० (सांठ) श्लोक होते हैं । अहो ! तो कोई ऐसा भी कहेगा कि श्री भक्तामर स्तोत्र ६० श्लोकों का हैं... तो उनमें से १६ श्लोक क्यों निकाल दिए ? अहो ! ऐसा ही होता ! परन्तु सद्भाग्य से चार जोडों में से एक ही जोडे के श्लोक श्री भक्तामर स्तोत्र के साथ जुड़े... इससे मात्र ४४ की बजाय ४८ ही गिनने में आया हैं । बत्तीस से पैंतीस (३२ से ३५) तक के श्लोकों की रचना पू. मानतुंगसूरिजी द्वारा नहीं की गई फिर भी किसी अज्ञात कवि द्वारा रचित चार श्लोक सहित श्री भक्तामर स्तोत्र की ४८ गाथा को कौन-कौन मानते हैं ? श्री भक्तामर स्तोत्र पूरे जैन संघ को मान्य हैं... परन्तु सब दिगम्बर-बन्धु भक्तामर स्तोत्र को ४८ श्लोक को मानते हैं। श्वेताम्बरों में स्थानकवासी एवं तेरापंथी सम्प्रदाय की मान्यता वाले भी इस स्तोत्र के ४८ श्लोक ही मानते हैं... परन्तु मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में इस स्तोत्र के ४४ श्लोक का ही पठन-पाठन होता हैं । मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में ४४ श्लोकों की मान्यता क्यों रही ? मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में विद्वान साधुओं की संख्या ज्यादा हैं एवं उनके पास प्राचीन ज्ञान भंडार भी व्यवस्थित एवं सुरक्षित हैं। भंडार के व्यवस्थित एवं सुरक्षित होनें का फायदा क्या हैं ? Xxxxxxxx Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only रहस्य-दर्शन २१५ www.jainelibrary.org
SR No.002588
Book TitleBhaktamara Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajyashsuri
PublisherJain Dharm Fund Pedhi Bharuch
Publication Year1997
Total Pages436
LanguageSanskrit, English, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size50 MB
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