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________________ नित्य इस स्तोत्र का पाठ करता हूँ | मैनें उत्सुकता वश पूछा क्या तुम्हें भक्तामर स्तोत्र इतना पसंद आ गया है ?... प्रोफेसर साहब ने प्रत्युत्तर में कहा कि... इसमें कोई दो राय नहीं कि इस स्तोत्र का पाठ मुझे अच्छा लगता है... मुझे भक्तामर तो अति सुन्दर लगता ही हैं... साथ साथ जिन शासन के नियम भी बहुत अच्छे लगते हैं । यहाँ भगवान बनना किसी का एकाधिकार (Monoply) नहीं है... "जगत की सब आत्मा, आत्मा से परमात्मा बन सकती है"। ___ "जिन धर्म याने पामर (पतीत) आत्मा को परम + आत्मा = परमात्मा बनाने का पथ (माग) है" - ये बात समझने योग्य है । यहाँ वीतराग बनना - ये किसी की मोनोपोली नहीं । एकाधिकार से यहाँ कुछ भी ग्रस्त नहीं है... जिन शासन तो गुणाधिकार पर खड़ा हुआ है । अगर श्री आदीश्वर परमात्मा जैसे तीर्थंकर बनना... ये किसी की Monoply नहीं हैं... तो खुद ही “मानतुंग" बनना ऐसी Monoply पू. मानतुंगसूरीशजी क्यों रखते ? पू. गुणाकरसूरीश्वरजी महाराज ने “मानतुंग' शब्द के छह (६) अर्थ बताये हैं... इस शब्द का अर्थ करते वक्त व्यक्ति को गौण बना कर, पू. मानतुंगसूरीश्वरजी महाराज को भी गौण बनाकर व्यक्त्वि को उभारा है... चलो ! देख तो लें! "मानतुंग" के छह अर्थ ! (१) "मानतुंग' याने चित्त की उन्नति से ऊँचा... (२) “मानतुंग' याने प्रतिष्ठा की प्राप्ति से ऊँचा... (३) “मानतुंग" याने (साभिमानी पुरूषोत्तम (कृष्ण). (४) “मानतुंग' याने अहंकार सहित, आज जिसे हम स्वाभिमानी कहते है... (५) “मानतुंग" याने पुरूषों की गणना में सर्व प्रथम... (६) “मानतुंग" याने सुन्दर एवं सर्व लक्षणों से युक्त संपूर्ण देह को धारण करे - वह । ऐसा मानतुंग बनने की मात्र स्तोत्रकार सूरि भगवंत ने अपनी मोनोपोली (एकाधिकार) नहीं रखी... आप भी श्री भक्तामर स्तोत्र का पाठ से... "मानतुंग' बनें... पुरूषों की गणना मे गिनें तो जाओं पर साथ-साथ पुरूषोत्तम भी बनो । इस तरह जब तुम “मानतुंग' बन जाओगे तब लक्ष्मी तुम्हारे पास अवश्य आयेगी... विवश होकर आयेगी । पूज्य गुणाकरसूरीजी ने इस “लक्ष्मी' का छह भिन्न-भिन्न संदर्भ में अर्थ किया है । पू. मानतुंगसूरीश्वरजी महाराज ने इस स्तोत्र की रचना की और उन्हें राज्य सम्मान एवं स्वर्ग मिला और उन्हें अब मिलेगा अपवर्ग-मोक्ष... ये त्रिवेणी संगम रूप लक्ष्मी पू. मानतुंगसूरीश्वरजी को मिली है । जिस प्रकार "अ" याने “कृष्ण" एवं “वशा" याने उनकी “पत्नी", मानतुंग रूप पुरूषोत्तम - कृष्ण के गले में वरमाला अर्पण करती हैं... ठीक इसी प्रकार इस स्तोत्र का भाव-पूर्वक पाठ करने वाले भक्तों के कंठ (गले) में भी, लक्ष्मी, माला अर्पित करती है। पूज्य मानतुंगसूरीश्वरजी ने इस स्तवन के आरंभ में “जिनेन्द्र" शब्द का प्रयोग किया है... साथ ही स्तोत्र के पूर्ण होते-होते भी “जिनेन्द्र" शब्द का प्रयोग करते हैं... उसी “प्रथमं जिनेन्द्रं" - श्रेष्ठ जिनेन्द्र को यहाँ भी याद करते है । टीकाकार कहते हैं कि "जिन" तो "विष्णु' का भी पर्यायवाची शब्द है... एवं इन्द्र याने सुरेन्द्र । इन विष्णु एवं सुरेन्द्र के शौर्य - ऐश्वर्य आदि गुणों से गुंथी हुई माला को जो कंठ में धारण करते हैं उन “मानतुंग' को सहज ही स्वतः, लक्ष्मी मिल जाएगी। पाँचवा अर्थ तो स्तोत्र-माला की उपमा प्राप्त ऐसी पुष्पमाला के प्रभाव की प्रशस्ति है... जो मनुष्य इस अलौकिक पुष्पमाला को अपने कंठ (गले) में धारण करता है, वह अवश्य लक्ष्मीवान बनता है... मान्य पुरूषो की पंक्ति में अग्र भाग पर विराजित होता है... टीकाकार एअसा भी श्लोक टीका में उध्धृत करते है, कि जो इस दिव्य पुष्पमाला को कंठ में धारण करता है, वह गरीब - दरिद्र मानव भी हो तो भी पुष्पमाला धारण करने से लक्ष्मीवान बनता है। छट्ठा अर्थ करते हुए टीकाकार कहतें हैं कि जिस प्रकार स्वयंवर में किसी पुरूष के गलेमें कोई स्त्री सोने की माला पहनाती है, तथा वह पुरूष उस माला को धारण करता है... ठीक उसी प्रकार इस "स्तोत्र-माला" को जो मनुष्य धारण करेगा उसके पास XXXXXXXXXXXXXXXXXXX रहस्य-दर्शन रहस्य-दर्शन २१३ २१३) Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002588
Book TitleBhaktamara Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajyashsuri
PublisherJain Dharm Fund Pedhi Bharuch
Publication Year1997
Total Pages436
LanguageSanskrit, English, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size50 MB
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