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________________ सके तथा दशा सुधर शके वही शुभ अर्थ है । ऐसे अर्थ का सूचन कर पू. गुणाकरसूरीश्वरजीने हमे मात्र एक गाथा के लिए ही नहीं परंतु समस्त भक्तामर स्तोत्र के लिए दिशा निदर्शन किया है । यह निर्देश पूरे भक्तामर स्तोत्र के लिए ही है, ऐसा क्यों माने? समस्त शास्त्रो के लिए ही यह बात समजने की है एवं “एगस्स सुत्तस्स अणंत अत्थो" एक सूत्र का अनंत अर्थ होता है। इस तथ्य को प्रगट करना है। चलें ! "स्तोत्र-सजं" पद का आस्वादन करें । "भक्तामर" यह मात्र स्तोत्र नहीं स्तोत्रमाला है | माला भले ही एक धागे में हो एक गुण में बंधी हुई हो धागा तो एक ही होता है, किंतु पुष्प अनेक होते है । कोई प्रश्नकार यह भी कहता है कि ऐसा किसने कहाँ कि एक ही प्रकार के, एक ही वर्ण के पुष्पों की माला नहीं हो सकती? मोगरा के पुष्प की भी माला होती है, और संपूर्ण मालती के फूल की भी माला होती है । परंतु पू. मानतुंगसूरीश्वरजी म.सा. स्पष्ट करते है कि ये “भक्तामर स्तोत्र रूप पुष्प माला' विचित्र एवं अनेक जाती के पुष्पों से गुनी (ग्रंथी) हुई है । ओ पाठक ! थोडी देर बिच में दूसरी बात कर ले । गुजराती भाषा में "विचित्र" शब्द का अर्थ संस्कृत भाषा जैसा नहीं रहा । शब्द के उच्चारण का भी अपभ्रंश होता है, परिवर्तन होता है, वैसे अर्थ का भी अपभ्रंश होकर परिवर्तन होता ही रहता है | “विचित्र" का अभी गुजराती भाषा में पसंद नहीं आये, समझ में नहीं आये, घृणा आये ऐसा अर्थ भी होता है। परंतु संस्कृत भाषामें "विचित्र" शब्द वैविध्यवाली-विविधतावाली चीजों के लिए प्रयोग में लिया जाता है । "यह भक्तामरस्तोत्र विविध-जाति के सुन्दर पुष्यों की माला है । इस स्तोत्र के किसी श्लोक में मनोहर उपमा है... तो किसी श्लोक में सुन्दर प्रास है... कोई श्लोक में अर्थान्तरन्यास रूपअलंकार है-आभूषण है... तो कोई श्लोक दृष्टांत अलंकारों से देदीष्यमान है । इन सब बातों से पीछे के टीकाकारों ने पूज्य मानतुंगसूरीश्वरजी के पद-चिन्हों (Foot-Prints) को ढूंढ निकाला है । “विचित्र-पुष्पाम्" जैसे शब्दों के प्रयोग से कदाचित् भक्तामरस्तोत्र के प्रत्येक श्लोक के विभिन्न-विविध प्रभाव हैं ऐसा सूचन हो गया है, अतः टीकाकारों ने इन रहस्यों को पाकर प्रत्येक श्लोक के अलग-अलग प्रभाव को दर्शाया है एवं प्रकाशित किया है। ये स्तोत्र माला वैसे तो अनेक प्रकार के विविध पुष्पों वाली है, ... पहले लिखे अनुसार ये माला एक वर्ण के पुष्प की नहीं है... उसमें अनेक वर्ण हैं | प्रश्नकार तो ऐसा भी पूछेगे कि विविध-पुष्पों का अर्थ तो "अनेक जाति के पुष्प", ऐसा है ! तो “विविध वर्णो के फुल एसा अर्थ कैसे किया ? यहाँ तो "रुचिरवर्ण' पद है, ... यह बात सत्य है... किन्तु “रुचिर" का अर्थ कया ? जो लोक रुचि के अनुसार चले उसका नाम "रुचिर" | "रुचिर"-याने प्रत्येक के मन को भा जाये ऐसा । क्या सब की रूचि एक जैसी हुई है ? किसी को लाल रंग देखकर जलते हुए अंगारे के समान लगता है... तो किसी को लाल रंग... के बिना बाकी सब फीका लगता है । ग्रन्थकार महामना श्री मानतुंगसूरीश्वरजी को “लोक-रुचि" का अंदाज था... हमें जैसा पसंद होता है वैसा ही हमें दूसरों को देने का मन होता है... परन्तु दूसरों पर अपनी चीज मात्र अपनी रुचि से थोपी नहीं जा सकती... ठीक इसी तरह धर्म किसी पर थोपा नहीं जा सकता और न ही सत्य किसी पर लादा जा सकता है । जन-सामान्य में भी सत्य के लिए एवं धार्मिक-कार्यों के प्रति रुचि जगानी चाहिए । पूज्य मानतुंगसूरीश्वरजी ने लोक-रुचि को ऐसी जागृत की कि जैन तो क्या जैनेतर भी एक बार इस स्तोत्र का... इस काव्य का रसास्वादन कर ले तो वह इस काव्य को कभी भूल नहीं सकता है । भोगार्थी-भौतिकार्थी या विरागार्थी-वीतरागार्थी, मोहार्थी या मोक्षार्थी, किसी को भी भक्तामर-काव्य पसंद न हो ऐसा नहीं है... कारण लोक-रूचि को समजने वाले पू. मानतुंगसूरीशजी ने समस्त मानव गणकी रूचि को ख्याल में रख कर ही इस काव्य की रचना की है... फिर भी मानतुंगसूरीशजी लोकानुगामी नहीं है... वे लोगों की रूचि को लोकोत्तर-मार्ग की ओर मोड़ते है । दैहिक एवं भौतिक... सुखों के भोगार्थी को भोग की प्राप्ति भी इस स्तोत्र से होती है, इतनाही पू. मानतुंगसूरीशजी का कहना नहीं है... परन्तु उन्होंने बड़े मार्मिक-शब्दों में पूछा है कि “क्या मिलेगा तुजे इस देह के भोग से" ? ___तुने अनंत-ज्ञान-दर्शन और चारित्र के आस्वादन का अनुभव नहीं किया है। विश्व के तमाम भोग-सुख भोगांतराय कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त हो सकते हैं, पर स्वभाव का भोग तथा स्वभाव का सौंदर्य का उपभोग तो इस कर्म के क्षय से ही होगा। अतः रूचिर का अर्थ विविध भी हो सकता है ! अब हम वर्ण शब्द पर विचार करेंगे ! वर्णो का अर्थ (अ से क्ष) "अ" से "क्ष" तक के अक्षरों तक ही है । XXXXXXXXXXXरहस्य-दर्शन २११ Jain Education International 2010.04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002588
Book TitleBhaktamara Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajyashsuri
PublisherJain Dharm Fund Pedhi Bharuch
Publication Year1997
Total Pages436
LanguageSanskrit, English, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size50 MB
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