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________________ जा सकता है । यह सर्व व्यापी स्तुति है, सर्व सामान्य स्तुति है, सामान्य संवादी हैं, विशेष विवादी है । हमें तो हृदय के भावों का संवाद परमात्मा के साथ करना है । इसी लिए “प्रथमं जिनेन्द्रं" का अर्थ समझना चाहिए। वाद-विवाद करने वाले तो ऐसा भी कह सकते है कि हम जिस भगवान को मानते है वे ही जिनेन्द्र है । पूज्य मानतुंगसूरीश्वरजी तो अनेकांती थे । वे तो जगत-तत्त्व के न्याय कर्ता (जज) थे । उन्होनें वादीयों से कहा, भले आप किसी भी देव को जिनेन्द्र कहो । हमारे यहाँ तो जैन-दर्शन में निक्षेपो की रचना है । "द्रव्य-जिनेन्द्र'' कोई भी हो सकते है । दुनिया के समस्त देवो को आप द्रव्य-जिनेन्द्र कहेंगे तो भी पू. मानतुंगसूरीश्वरजी को कोई एतराज नहीं है । हो सकता है, द्रव्य से अनेक देव द्रव्य तीर्थों के नायक हो सकते है । परन्तु यहाँ जरूरत है "भाव-जिनेन्द्र'' की; इसलिए महा-कविने “जिनेन्द्र' शब्द का उपयोग किया है । "ऋपभ" शब्द का उपयोग नहीं किया है । कवि-रत्नने “जिनेन्द्र शब्द को ही प्राथमिकता दी है। किसी विशेष नाम को नहीं.. उन्होने सर्व-नाम का ही प्रयोग किया है । परन्तु इस नाम के “जिनेन्द्र” शब्द से "प्रथमं" विशेषण देकर अदभुत कौशल्य का परिचय दिया है । "प्रथम" मार्मिक कहा जाने वाला विशेषण है। प्रथम जिनेन्द्र-याने पहले भगवान यह अर्थ तो है हि परन्तु प्रथम-याने मुख्यं, प्रथम-याने उत्तम, प्रथम-याने प्राचीन, ऐसे भी अर्थ होते हैं । पू. मानतुंगसूरीश्वरजी "भाव-जिनेन्द्र'' की स्तुति करते हैं, “द्रव्य-जिनेन्द्र" की नहीं । चार निक्षेपों में मुख्य निक्षेप "भाव निक्षेप' ही है ओर उससे “प्रथमं जिनेन्द्र'"-यानि भाव जिनेन्द्र ऐसा ही अर्थ करना । मुझे ऐसा लगता है कि काफी तादाद में स्तवनों की रचना हुई है | कई स्तुतियाँ भी बनी है । परन्तु मात्र “प्रथमं जिनेन्द्र" इस शब्द का उपयोग कर पूरे स्तवन में पूरे स्तोत्र में किसका स्तवन है ऐसा तनिक भी मालूम न होने दे, वैसा तो यही स्तोत्र होगा । टीकाकार गुणाकरसूरीश्वरजी इसी लिए लिखते हैं कि "प्रथम-प्रसिद्धं-आदौ वा सामान्य तीर्थंकरम्' यहाँ पर जिनेन्द्र शब्द सामान्य शब्द है; तो प्रथम शब्द भी सामान्य जैसा ही लगता है । दार्शनिक कहते है- “दर्शन' तो सामान्य है, निराकार व निर्विकल्पक ज्ञान है, उसमें विवाद होता ही नहीं, मिथ्या की छाया होती है, सविकल्प (विशेष) ज्ञान में । पर मिथ्या की छाया को लांघ जाने वाले श्री मानतुंगसूरीश्वरजी महाराजने “प्रथमं” तथा “जिनेन्द्र" इन दोनो शब्दों को व्यापक माना है, और सामान्यवाची ही गिना है । हरिहर-ब्रह्मा-विष्णु-पैगम्बर-ओलिया या ईसाई कोई भी “द्रव्य जिनेन्द्र" हो परन्तु मानतुंगसूरीश्वरजी को इस बात से कोई इन्कार नहीं है । भले ही वे द्रव्य जिनेन्द्र हो परन्तु यहाँ तो स्तुति करनी है.. "भाव जिनेन्द्र" की राग-द्वेष रहित परमात्मा की ! "जे अ अईया सिद्धा, जे अ भविस्संति णागय काले" नमुत्थु णं सूत्र (शक्र स्तव) के अंत का पद यहाँ सूचित किया गया है । पू. मानतुंगसूरीश्वरजी के इस महान स्तोत्र में “भाव जिनेन्द्र' की स्तवना (स्तुति) की गई है । मात्र ऋषभदेव भगवान की ही नहीं, अतीत के अनंत एवं अनागत (भविष्य) के अनंत साथ-साथ वर्तमान में विद्यमान सीमंधर स्वामि आदि तमाम जिनेश्वर भगवंतो (जिनेन्द्रों) की स्तुति की गई है । जो जिनेन्द्र मुख्य हैं, जो जिनेन्द्र उत्तम हैं, उनकी स्तुति की गई है । प्रथमं शब्द का अर्थ “पहला एवं प्राचीन" इन दो अर्थो की ओर मानतुंगसूरीश्वरजी ने ईशारा किया है, लेकिन उनका झुकाव याने कहने का आशय प्रथम याने मुख्य एवं उत्तम इन अर्थों की ओर है । इस "प्रथम' शब्द के कालातीत एवं विवादातीत अर्थ में पू. मानतुंगसूरीश्वरजी बहुत ही गहराई तक पहुँचे हैं। हमें भी ऐसे ही "जिनेन्द्र" के चरणों में वंदन करना है । चित्तहरैः उदारैः हमारे पास सुरेन्द्रों द्वारा की गई स्तुतियों का प्रचुर संग्रह तो उपलब्ध नहीं है, परन्तु एक मात्र स्तुति है “शक्र-स्तव" | शक्र याने इन्द्र, ऐसे सुरलोक के नाथ द्वारा की गई स्तुति शक्र-स्तव (नमुत्थु णं सूत्र) कहलाया है । पू. मानतुंगसूरीश्वरजी के लक्ष्य में ऐसी स्तुतियों की बहुलता थी । ये सभी स्तुतियां कवि-रत्न मानतुंगसूरीश्वरजी को “चित्तहर” (चित्त को हरने वाली) एवं भव्य भी लगी थी । इसी लिए पू. मानतुंगसूरीश्वरजी ने श्री भक्तामर-स्तोत्र को चित्तहर एवं उदार भी बताया है । सुरलोक नाथ शब्द का उपयोग भी किसी विशेष हेतु को ध्यान में रख कर ही किया गया है । अगर देवलोक नाथ शब्द होता तो मात्र इन्द्रों की बात आती । इस लिए सुरलोक नाथ शब्द का उपयोग किया है । सुर याने देव तो है ही; परन्तु, तमाम महापंड़ित एवं महा-कवि भी “सुर" शब्द की परिधि में आ जाते हैं | पंड़ित के समुदाय के नाथ (प्रमुख) जैसे महा-पंड़ितों द्वारा भी परमात्मा की स्तवना की गई है । देवों के नाथ इन्द्रों ने भी प्रभु की स्तुति की है; तो बौद्धिक जगत के इन्द्रों ने भी परमात्मा की स्तुति की है । इस वात से काव्य-शास्त्र के प्राण समान "शब्द'' एवं 'अर्थ' की मनोहरता का यहाँ प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से इशारा हो गया है | श्री भक्तामर-स्तोत्र के एक-एक शब्द चित्त को हरने वाले हैं, मनोहर हैं, तथा इसके अर्थ भी "उदार' हैं | काव्य XXXXXXXXXXXXXXXX रहस्य-दर्शन रहस्य-दर्शन २०७) Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002588
Book TitleBhaktamara Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajyashsuri
PublisherJain Dharm Fund Pedhi Bharuch
Publication Year1997
Total Pages436
LanguageSanskrit, English, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size50 MB
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