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गीत (लोरीयों) नहीं गायी जाती; इनको ललकारना चाहिए, निकालना चाहिए । प्रकृष्ट प्रयत्न के बिना आत्मा के उपर अनादिकाल की जमी हुई वासना साफ नहीं होती । कचरा निकालने का काम हो तो नत्वा से चले, नमस्कार से चले, परन्तु जब कचरे का ढेर(उकरली) साफ करना हो तो "प्रणाम भाव" ही चाहिए ।
_इस तरह प्रणाम करते करते भी विधि का नितांत पालन जरूरी है । अति उत्साह में आकर विधि-रहित एवं अविवेक पूर्ण क्रिया नहीं करनी चाहिए । प्रणाम भी सम्यक् रीति से ही करना । दीक्षा लिए बिना तथा महाव्रत ग्रहण किये बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती, यह बात सच है । परन्तु आंतरवृत्ति अगर देशविरति की भी न हो एवं श्रावक के व्रतों को पालने की भूमिका न हो फिर भी साधु वेश को धारण करने का प्रचंड प्रयत्न कर लिया तो भी प्रगति नहीं हो सकती । लक्ष्य प्राप्ति अवरूद्ध हो जाती हैं ।
“दलित पाप तमो वितानाम्' में आये हुए “पाप" शब्द से "सव्वपावप्पणासणो" याद आ जाता हैं । ये पद याद आते ही श्री “नमस्कार महामंत्र'' की स्मृति स्वतः ही हो जाती है । नवकार याने “चौदह पूर्व का सार' । इस महामंत्र की स्मृति मात्र मंगल ही नहीं, महामंगल भी है ।
यहाँ प्रयुक्त “सम्यक्" शब्द "श्री तत्त्वार्थ-सूत्र' की याद दिलाता है । “सम्यक् दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्ष मार्गः" । यह एक ही सूत्र है, जिन्हें द्वादशांगी के उपनिषद् रूप में माना गया है ।
सम्यक प्रणाम भी पाद-युगल को ही है ना ! दर्शन एवं ज्ञान एक ही हैं, अतः श्रुत रूप है । एक पाद (पाँव) समान है। चारित्र दूसरा, पाद समान है । जैसे तत्वार्थ-सूत्र में कहा गया है कि दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र इन तीनों का मिलन ही मोक्ष मार्ग है । वैसे यहाँ भी श्रुत एवं चारित्र रूप दोनों की युगल जोडी से ही मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होता है । इसके लिए जरूरी है "जिन पाद युगं" को “सम्यक् प्रणाम" की।
महाकवि श्री मानतुंगसूरीश्वरजी की महा-तार्किक शैली मन को मंत्रमुग्ध कर देती है । ये “सम्यक' पद दो कमरों के बीच की देहली पर दीपक रखने जैसा है । जो बीच में रह कर दो कक्षों को प्रकाशित करता है ।
"भक्तामर प्रणत मौलि मणि प्रभाणाम् सम्यक् उद्योतकम्” इस में भी ‘सम्यक्" शब्द जोडा जा सकता है । एवं “युगादौ सम्यक् आलम्बनं" में भी “सम्यक्” पद जोडा जा सकता है ।
एक विद्वान चिंतक ने प्रश्न किया था कि भक्त-देवों के मुकुटों में रहे हुए मणि की प्रभा को प्रकाशित करने में ही प्रभु की क्या महत्ता है? जैसे एक प्रकाश दूसरे प्रकाश में विलीन (अभिभूत) हो जाता है । तेज प्रकाश में (धीमा) कम प्रकाश अपनी अलग पहचान नहीं बना सकता । फिर भगवान के तेजोमय नाखून की किरणें देवों के मुकुटों में रहे हुए दिव्य मणियों को कैसे चमका सकती है ? परमात्मा के नाखुन से निकलती तेजोमय दिव्य किरणों के सामने देवताओं के मुकुटों में रही हुई मणि की प्रभा फीक्की पड़ जाती है । अतः उनको प्रकाशित करने का प्रश्न ही नहीं उठता । इसी लिए यह विचारणीय है कि “मौलि" ये भक्त के मस्तक में रहे हुए जाज्वल्यमान सहस्रार-चक्र हैं, एवं उनका "मणि' समान मध्य-भाग-केन्द्र बिन्दु ही मणि है । ऐसे मणि का सम्यक् उद्योत प्रभु के चरण से ही होता है । कहने में आया है कि गणधर-भगवंत तीर्थंकर-परमात्मा के पास दीक्षा लेते हैं । एवं दीक्षा लेते ही तुरंत उन्हें “मनः पर्यव ज्ञान" प्रकट हो जाता हैं । यदि हम प्रभु के चरण में शरणागत हो जाते हैं तो कुंडलिनी की शक्ति अवश्य जागृत होती है; मूलाधार से शक्ति उत्थित हो कर सहस्रार-चक्र में पहुँच जाती है । इस सहस्रार चक्र में कुंडलीनी को जागृत करना आसान है, पर उसको उर्ध्वमुखी वनाना बहुत कठिन है । योगी-महात्मा कहते है कि कुंडलि की जागृति तो होती है, मगर अधोमुखी से उर्ध्वमुखी बनाना न आये तो शक्ति तो जागृत होती है परन्तु उसका पतन होकर साधक का विनिपात होता है । इसीलिए जरूरी है, कुंडलि की शक्ति को उर्ध्वमुखी करने की; ऐसी उर्ध्वमुखी दशा आ जाने से ही सम्यक् उद्योतकम् रूप में प्रभु की कृपा फलीभूत होती है. कुंडलि की शक्ति को जागृत करने वाले तो बहुत हैं, परन्तु सम्यक् जागृत करने वाला तो प्रभु आदिनाथ ! तूं ही है, तेरा चरण-युगल ही है । कषायों की क्रूरता एवं विषयों की विषमता को विलीन करने वाले ऐसे “पाद-युग' को पुनः सम्यक् प्रणाम । कषाय एवं विषय इन दोनों की जोडी है । विषय कषायों के लिए खुला मेदान है | उदय में आने वाले कषाय, विषयों के लिए महान लोह-चुम्वक के समान है । इसी लिए इस महान पाद-युग की जोडी को कषायहन्त्री एवं विषयहन्त्री के रूप में निर्धारित करके ही “सम्यक प्रणाम" करना है ।
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रहस्य-दर्शन
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