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3. भगवान संभवनाथ
ध्वजा
भगवान अजितनाथ के निर्वाण के बहुत समय बाद की घटना है। महाविदेह के ऐरावत क्षेत्र में क्षेमपुरी का राजा था-विपुलवाहन। वह नीति, न्याय एवं करुणा की साक्षात् मूर्ति था। प्रजा को दुःखी देखकर उसका हृदय बर्फ की तरह पिघल जाता था। एक बार राज्य में भयंकर दुष्काल पड़ा। बूंद-बूंद पानी के लिए जनता तरस रही थी। अपनी प्रजा को, स्वधर्मी भाइयों और साधु-संतों को भूख-प्यास से बेहाल देखकर राजा का मन पीड़ा से तड़प उठता था। उसने राज्य के धान्य भंडार प्रजा के लिए खुले कर दिये तथा अपने रसोइयों को आदेश दिया-“मेरी रसोई में कोई भी भूखा-प्यासा व्यक्ति, स्वधर्मी भाई या साधु-महात्मा आवे तो पहले उन्हें आहार-दान दिया जाये, अगर बचेगा तो मैं अपनी क्षुधा मिटा लूँगा, अन्यथा उनकी सेवा के सन्तोष से ही मेरी आत्मा सन्तुष्ट रहेगी।" पूरे दुष्काल के समय अनेक बार राजा भूखे पेट सोता, प्यासे कंठों से ही प्रभु की प्रार्थना करता। इस प्रकार की उत्कृष्ट सेवा एवं दान-भावना के कारण राजा विपुलवाहन ने तीर्थंकर-नाम-कर्म का
पद्म उपार्जन किया। कालान्तर में वर्षा हुई। दुष्काल मिटा। राजा, प्रजा सुखी हो गए। किन्तु प्रकृति की यह क्रूर
सरोवर लीला देखकर राजा के मन में संसार से विरक्ति हो गई और पुत्र को राज्य सौंपकर वह मुनि बन गये।।
मुनि विपुलवाहन का जीव स्वर्ग में गया। वहाँ से च्यवकर श्रावस्ती नगरी के राजा जितारि की रानी / सेनादेवी के गर्भ में अवतरित हुआ।
पुण्यशाली पुत्र के गर्भ-प्रभाव से सम्पूर्ण राज्य में खूब वर्षा हुई। धन-धान्य की भरपूर फसल हुई। एक बार राजा-रानी महल की छत पर खड़े होकर दूर-दूर के हरे-भरे खेतों को देखने लगे। राजा ने कहा“महारानी ! इस बार उपजाऊ खेतों में तो क्या, बंजर भूमि में भी देखो, कितनी अच्छी फसल हुई है। ऐसा लगता है हमारी आने वाली संतान का ही यह पुण्य-प्रभाव है जो असंभव भी संभव हो रहा है। हम अपने पुत्र
विमानका ‘संभव' नाम रखेंगे।" (चित्र G-2/स)
भवन मार्गशीर्ष शुक्ला १४ को पुत्र का जन्म हुआ। जन्मोत्सव के समय राजा ने उसी घटना की चर्चा करते हुए पुत्र का नाम 'संभवकुमार' रखा।
पिता के उत्तराधिकारी के रूप में संभवकुमार का राज्याभिषेक हुआ। कुछ ही समय बाद उन्होंने अपने पुत्र को राज्य सौंप दिया और संसार का त्यागकर अणगार व्रत स्वीकार कर लिया। १४ वर्ष राशि तक छद्मस्थ रहने के पश्चात् भगवान को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। भगवान की प्रथम धर्म देशना अनित्य भावना पर हुई। लगभग एक लाख पूर्व तक तीर्थंकर रूप में विचरण कर अन्त में सम्मेदशिखर पर निर्वाण प्राप्त किया।
निधूम
समुद्र
अग्नि
भगवान संभवनाथ
( ४१ )
Bhagavan Sambhavnath
मुनिसुव्रत
नमि
अरिष्टनेमि
पाव
महावीर
-Forte-dresonaroserom
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