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परिशिष्ट ५
तीर्थंकर-चिह्न : एक चिन्तन
ध्वजा
समुद्र
तीर्थंकर चौबीस हैं। प्रत्येक तीर्थंकर का एक-एक चिन्ह है, जिसे लांछन/लक्षण कहा जाता है। तीर्थंकर मूर्तियाँ प्रायः समान होती हैं। केवल ऋषभदेव की कुछ मूर्तियों के सिर पर जटाएँ पाई जाती हैं तथा पार्श्वनाथ की मूर्तियों के ऊपर सर्प-फण होता है। सुपार्श्वनाथ की कुछ मूर्तियों के सिर के ऊपर भी सर्प-फण मिलते हैं। सुपार्श्वनाथ और पार्श्वनाथ के कम्भ सर्प-फणों में साधारण-सा अन्तर मिलता है। सुपार्श्वनाथ की मूर्तियों के ऊपर पाँच फण होते हैं और पार्श्वनाथ की मूर्तियों के सिर के ऊपर सात, नौ, ग्यारह अथवा सहस्त्र सर्प-फण पाए जाते हैं। इन तीर्थंकरों के अतिरिक्त शेष सभी तीर्थंकरों की मूर्तियों में कोई अन्तर प्रतीत नहीं होता। उनकी पहचान उनकी चरण-चौकी पर अंकित उनके चिह्नों से ही होती है। चिह्न न हो तो दर्शक को पहचानने में बड़ा भ्रम हो जाता है। कभी-कभी तो लांछनरहित मूर्ति को साधारण-जन चतुर्थकाल की मान बैठते हैं, जबकि वस्तुतः श्रीवत्स, लांछन और अष्ट प्रातिहार्य से रहित मूर्ति सिद्धों की कही जाती पद्य है। इसलिए मूर्ति के द्वारा तीर्थंकर की पहचान करने का एकमात्र साधन तीर्थंकर प्रतिमा की चरण चौकी पर अंकित | सरोवर उसका चिह्न ही है। तीर्थकर मूर्ति-विज्ञान में चिह्न या लांछन का अपना विशेष महत्त्व है।
इन चिह्नों के सम्बन्ध में विचारणीय बात यह है कि इन चिन्हों का कारण क्या है? ये तीर्थंकर प्रतिमाओं पर कब से और क्यों उत्कीर्ण किए जाने लगे और शास्त्रीय दृष्टिकोण क्या है? कुछ चिह्नों का सम्बन्ध तीर्थंकरों के पूर्व-भवों से भी जुड़ता है जैसे-भगवान महावीर का जीव पूर्व-भव में सिंह बना (भगवान महावीर का लांछन सिंह है)। भगवान पार्श्वनाथ के जीवन में सर्प का सम्बन्ध रहा है। भगवान ऋषभदेव ने कृषि का प्रवर्तन किया। कृषि का सम्बन्ध वृषभ से है। भगवान नेमिनाथ का शंख बजाना भी शंख के साथ सम्बन्ध स्थापित करता है।
२४ तीर्थंकरों में से १७ तीर्थंकरों के चिह्न पशु-पक्षी जगत से सम्बन्ध रखते हैं। प्राणि जगत के प्रति उनकी करुणा और आत्मतुल्य दृष्टि इससे ध्वनित होती है।
विमानइस सन्दर्भ में माना जाता है कि इन्द्र भगवान के जन्म-अभिषेक के समय उनके शरीर पर जिस वस्तु की
भवन रेखाकृति देखता है उसी को उनका चिह्न घोषित कर देता है। "त्रिकालवर्ती महापुरुष' में यह उल्लेख भी आता है कि
जम्मण काले जस्स दु दाहिण पायम्मि होइ जो चिह।
तं लक्खण पाउ तं आगमसते सजिण देहे॥ तीर्थंकरों के दायें पैर के अंगूठे पर जन्म के समय इन्द्र जो चिह्न देखते हैं उसी को उनका चिह्न निश्चित कर देते हैं।
मूर्ति-निर्माण के प्रारम्भिक काल में मूर्तियों पर लांछन उत्कीर्ण करने की परम्परा नहीं रही। लोहानीपुर की राशि मौर्यकालीन या शक-कुषाणकालीन मूर्तियों पर लांछन नहीं पाए जाते थे। बाद के काल में लांछनों के अंकन की परम्परा प्रारम्भ हुई और इनका अंकन मूर्ति के पादपीठ पर किया जाने लगा। फिर भी चिह्नों की कारण मीमांसा आज भी शोध माँगती है कि आखिर इन चिह्नों के साथ कौन से मनोवैज्ञानिक तथ्य जुड़े हैं और कौन-सी श्रेष्ठतायें चिह्नों में झाँकती हैं NS जो तीर्थंकरों की विशिष्ट पहचान बनती हैं। चिह्नों के विषय में विशेष जानकारी के लिए देखें तीर्थंकर का १९९० निधूम जनवरी-फरवरी अंक। इस पुस्तक में तीर्थंकरों के चिह्न प्रत्येक पृष्ठ पर बोर्डर में अंकित हैं।
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परिशिष्ट ५
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Appendix 5