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________________ सुपार्श्व 9. अरिहंत (तीर्थंकर) देव की भक्ति । २. सिद्ध परमात्मा की भक्ति । ३. प्रवचन भक्ति। ४. गुरु भक्ति। ५. स्थविर भक्ति । ६. बहुश्रुत भक्ति । ७. तपस्वी भक्ति | चन्द्रप्रभ ८. सतत ज्ञानोपयोग-साकार उपयोग में अधिक से अधिक समय तक अपने को नियोजित कियें रहना। ९. दर्शन की विशुद्धि बनाये रखना । १०. गुणोत्कीर्तन - गुणीजनों के गुणों का उत्कीर्तन करना, प्रमोद भावना से भावित दूसरों के विकास को देखकर प्रसन्न होना । ११. षड़ावश्यक प्रतिक्रमण - विधिपूर्वक भावक्रिया युक्त समयबद्ध करना। परिशिष्ट २ | सुविधि मल्लि | मुनिसुव्रत Jain Education International 2010_03 नमि शीतल १२. निरतिचार व्रताराधना-महाव्रत, अणुव्रत जो भी स्वीकृत नियमोपनियम हैं, उनका वर्धमान परिणामों से पालन करना। १३. विरक्ति - राग - विरक्ति, ज्ञातासूत्र के आठवें अध्ययन में और आवश्यक नियुक्ति में उपर्युक्त बीस स्थान- प्रकार बतलाये हैं। इन बीस स्थानों में से एक-दो स्थान की भी विशेष आराधना करने से कर्म निर्जरण के साथ तीर्थंकर नाम कर्म की प्रकृति का बंध हो सकता है। महापुराण में एवं तत्त्वार्थ सूत्र में तीर्थंकर होने के सोलह भावनात्मक स्थान बतलाये हैं। उन सोलह स्थानों में बीस स्थानों का समावेश हो गया है। दोनों जगह भावक्रिया को प्रधानता दी गई है। श्रेयांस भोग-विरक्ति, मोहविरक्ति, अहं विरक्ति, लोभ-विरक्ति का निरंतर अभ्यास करना । अनासक्त भाव का अभ्यास करना। ( १७९ ) १४. सामर्थ्य का उपयोग - तपो मार्ग में पुरुषार्थ । १५. चतुर्विध संघ (साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका ) को विशेष समाधि प्रदान करना। १६. त्यागीजनों की सेवा करना। १७. नित नये ज्ञान का अभ्यास करना- प्रतिदिन ज्ञान मार्ग की आराधना करना । १८. वीतराग वाणी पर श्रद्धा आस्था रखना। १९. सुपात्र दान देना । २०. जिनशासन तीर्थंकर प्रवचन प्रभावना । | वासुपूज्य O |अरिष्टनेमि (1 For Private & Personal Use Only पार्श्व ( ज्ञातासूत्र ८ ) Appendix 2 महावीर ध्वजा कुम्भ पद्म सरोवर समुद्र विमानभवन रत्न राशि निर्धूम अग्नि www.jainelibrary.org
SR No.002582
Book TitleSachitra Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1995
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size13 MB
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