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सिंह
गज
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वृषभ
लक्ष्मी
चन्द्र
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अभिनन्दन।
सूर्य
ऋषभ
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सुमति
भगवान महावीर के पास आ पहुँचा। दोनों बैल भी वहाँ बैठे- जुगाली कर रहे थे, ग्वाले को क्रोध आ गया ।। सोचा - "यह साधु नहीं, कोई चोर है।" आव देखा न ताव उसने बैलों को बाँधने की रस्सी से ही महावीर को पीटना शुरू कर दिया।
सम्भव
"ठहरो ! मूर्ख अज्ञानी, क्या कर रहे हो ?" एक कड़कती रौबदार आवाज सुनाई दी। ग्वाला सहम गया । सामने खड़ा था एक दिव्य तेजस्वी पुरुष । ग्वाला उस देव पुरुष को देखते ही डर गया ।।
मौत को भी डरा रहे थे। जगह-जगह हड्डियों के ढेर लगे थे। श्रमण भगवान महावीर ने उपयुक्त स्थान पुष्पमाला समझकर ठहरने के लिए ग्रामवासियों से अनुमति माँगी। तो एक वृद्ध व्यक्ति ने काँपते हुए कहा - " आपको मालूम है, यह उस शूलपाणि दैत्य का मंदिर है, जो मनुष्य की हड्डियों के ढेर पर खड़ा होकर अट्टहास करता है । जिस दुष्ट दैत्य ने वर्द्धमान नामक इस सुन्दर नगर को आज हड्डियों का किला "अस्थिकग्राम" बना दिया है, वह अपने मंदिर में रात को किसी भी मनुष्य को ठहरने नहीं देता। यदि कोई ठहर भी जाये तो वह प्रातः जीवित नहीं बचता। आप इस भय भैरव व काल-कोठरी में किसलिए ठहरना चाहते हैं ?
"तुम्हें मालूम है, जिन्हें तुम चोर समझकर बेरहमी से पीटते जा रहे हो, वो कौन हैं ? मूर्ख, कितना घोर अनर्थ कर रहे हो तुम ! ये तुम्हारे बैलों के चोर नहीं महाराज सिद्धार्थ के पुत्र - श्रमण महावीर हैं। महान् तपस्वी ध्यान योगी प्रभु महावीर ।" ( चित्र M-15/ 1 )
वाला गिड़गिड़ाकर प्रभु के चरणों में गिर गया। क्षमा माँगने लगा।
देवराज इन्द्र ने प्रभु महावीर की वन्दना की - "प्रभो ! ये अज्ञानी लोग आपको नहीं पहचान पाते, मूढ़तावश बार-बार आपको इस प्रकार की यंत्रणाएँ, पीड़ाएँ देने की धृष्टता करते रहेंगे। आप अकेले हैं । जंगल में ध्यान करते हैं, इस प्रकार की अप्रिय घटनाएँ बार-बार घटती रहेंगी।"
"प्रभु! मुझे अनुमति दीजिए, मैं सतत आपश्री की सेवा में रहकर कष्टों का निवारण करता रहूँगा।" महाश्रमण महावीर बोले- " देवराज ! आप जानते हैं, प्रत्येक साधक स्वयं के ही पुरुषार्थ, पराक्रम-बल वीर्य के भरोसे के ज्ञान और निर्वाण लक्ष्मी को प्राप्त करता है दूसरों के सहारे नहीं
""
श्रद्धाभिभूत दवेन्द्र श्रमण महावीर की वन्दना कर लौट गये । (चित्र M-15/ 2 ) शूलपाणि यक्ष क. उपसर्ग
भगवान महावीर वेगवती नदी के तट पर बसे एक सुनसान छोटे से गाँव में पहुँचे। उसके आस-पास का वातावरण बहुत ही भयावह, रौद्र और हृदय को कँपा देने वाला था। गाँव के बाहर सूखी नदी के किनारे एक छोटी-सी टेकरी थी, उस टेकरी पर शूलपाणि यक्ष का मन्दिर था। उसके आस-पास अनेकों नर कंकाल पड़े
विमल
श्रमण महावीर स्वयं अभय थे, इस धरती पर भय की जड़ काटकर अभय का कल्पवृक्ष उगाना चाहते थे, इसलिए इस भय - भैरव स्थान को ही उन्होंने चुना और संध्या होते-होते वे यक्ष मन्दिर के एक भाग में ध्यान - मुद्रा में खड़े हो गये ।
अनन्त
रात्रि होते ही भयंकर हुँकार करता हुआ, एक हाथ में त्रिशूल लिये शूलपाणि यक्ष मन्दिर के अहाते में प्रकट हुआ।
Illustrated Tirthankar Charitra
fonal 20102037
पद्मप्रभ
धर्म
( १२८ )
शान्ति
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कुन्धु
सचित्र तीर्थंकर चरित्र
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