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________________ सुपार्श्व चन्द्रप्रभ सुविधि शीतल श्रेयांस वासुपूज्य ध्वजा कुम्भ नेमिकुमार ने अपना बहुमूल्य कण्ठहार, कुण्डल आदि आभूषण सारथि को पुरस्कारस्वरूप दिया और कहा-“अब हाथी को वापस अपने महलों की ओर ले चलो। मुझे यह विवाह नहीं करना है।" ___ कुमार को तोरण द्वार से वापस लौटते देखकर महाराज समुद्रविजय, वासुदेव श्रीकृष्ण आदि ने समझाने व रोकने की बहुत चेष्टा की। परन्तु महापुरुष कभी अपने निर्णय से डिगते नहीं। अडिग निष्ठावान नेमिकुमार ने उत्तर दिया-“अम्ब तात ! जिस प्रकार ये पशु-पक्षी बंधनों में बँधे हुए तड़प रहे थे, और बन्धन मुक्त होते ही प्रसन्न होकर उड़ानें भरने लगे, उसी प्रकार आप और हम, सभी प्रगाढ़ कर्म बंधनों से बँधे हुए हैं। मैं इन बंधनों में बंदी हूँ। सुख बंधन में नहीं, मुक्ति में है। अतः अब मुक्त होने के लिए संयम ग्रहण करना चाहता हूँ। आप लोग मुझे रोकिए नहीं।" और इस प्रकार कहते हुए कुमार वर यात्रा से लौटकर सीधे अपने आवास की ओर चल दिये। ____ उधर दुल्हन के रूप में सजी प्रियतम के दर्शनों की प्यास लिए राजीमती ने जैसे ही यह सुना कि कुमार अरिष्टनेमि बारात से वापस लौट गये, अब कभी नहीं आयेंगे, तो वह फूट-फूटकर रोने लगी। भाग्य को कोसने लगी। बार-बार मूर्छित होती और जब जागती तब विलाप करती रहती। (चित्र AN-4/अ) ___ एक वर्ष तक वर्षीदान देकर श्रावण शुक्ला षष्ठी के पूर्वाह्न (दोपहर के पहले) समय अरिष्टनेमि पद्म द्वारका नगरी से निकलकर उज्जयंत पर्वत की तरफ बढ़े और वहाँ सहस्राम्र वन उद्यान में अशोक वृक्ष के सरोवर नीचे सब वस्त्र आभूषणों को त्यागकर पंचमुष्टि लोच करके वे पूर्ण त्यागी अणगार बन गये। वासुदेव श्रीकृष्ण अपने लघु भ्राता कुमार को प्रव्रजित होते देखकर गद्गद् हो गये। रुंधे कण्ठ से वे निकट आकर आशीर्वाद के स्वर में बोले-“हे दमीश्वर ! आपने हम सबको छोड़ दिया, अपने शरीर के वस्त्र, आभूषण और केशों का भी समुद्र त्याग कर दिया। अब आप शान्ति, तप और मुक्ति के मार्ग पर बढ़ते हुए अपने इच्छित कार्य को सिद्ध करें।" (चित्र AN-4/ब) प्रव्रज्या ग्रहण के ५४ दिन पश्चात उसी उज्जयंत शैल शिखर पर बेतस वृक्ष के नीचे ध्यानमग्न हुए अरिष्टनेमि को केवलज्ञान प्राप्त हुआ। देवों ने समवसरण की रचना की। प्रभु की प्रथम देशना हुई। चार तीर्थ विमानकी स्थापना कर वे बाईसवें तीर्थंकर बने। भवन राजीमती का अनुकरणीय त्याग अरिष्टनेमि के साथ राजीमती का पूर्व नवभवों का प्रगाढ़ प्रेम था। इस प्रेम स्नेहानुराग के कारण वह एक वर्ष तक उनके वियोग में पानी के बिना मछली की भाँति तड़पती रही। अरिष्टनेमि के छोटे भाई रथनेमिकुमार ने राजीमती को अपने प्रणय-पाश में फँसाने के अनेक प्रयास किये, परन्तु राजीमती के जीवन में तो राशि अरिष्टनेमि बस चुके थे, वह उनके सिवाय किसी का नाम भी नहीं सुनना चाहती थी। एक वर्ष पश्चात् राजीमती ने सुना, मेरे प्रियतम अरिष्टनेमि दीक्षित होकर कठोर तप करते हुए अब त्रिलोकीनाथ तीर्थंकर बन गये हैं। राजीमती ने भी प्रभु पथ का अनुसरण किया और अनेक राज-कन्याओं के साथ श्वेत वस्त्र धारण कर रैवतगिरि पर्वत की तरफ चल पड़ीं। प्रभु अरिष्टनेमि से संयम व्रत ग्रहण किया और तप-ध्यान साधना निधूम अग्नि कर अन्त में भव मुक्त हुई। भगवान अरिष्टनेमि Bhagavan Arishtanemi | मल्लि मुनिसुव्रत ) नमि ( अरिष्टनेमि (1) पार्श्व ( 1) महावीर (८५ )
SR No.002582
Book TitleSachitra Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1995
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size13 MB
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