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________________ लोक-विजय प्रथम उद्देशक आसक्ति १. जो विषय है, वह संसार है; जो संसार है, वह विषय है। २. इस प्रकार विषयार्थी पुरुष महान् परिताप से प्रमत्त होकर वास करता है। मेरी माता, मेरा पिता, मेरा भाई, मेरी बहिन, मेरी पत्नी, मेरा पुत्र, मेरी पुत्री, मेरी वधू, मेरा मित्र, मेरा स्वजन, मेरे स्वजन का स्वजन, मेरा सहवासी, मेरे प्रचुर उपकरण, परिवर्तन (आदान-प्रदान की सामग्री), भोजन, वस्त्रइनमें आसक्त पुरुष प्रमत्त होकर उनके साथ वास करता है।' ३. वह रात-दिन परितप्त रहता है, काल या अकाल में [अर्थार्जन का] प्रयत्न करता है, संयोग का अर्थी होकर अर्थ-लोलुप [और अर्थ-लोलुप होकर] चोर या लुटेरा हो जाता है। उसका चित्त [अर्थार्जन में ही] लगा रहता है। [अर्थार्जन में संलग्न पुरुष] पुनः-पुनः शस्त्र (संहारक) बनता है। अशरण भावना और अप्रमाद ४. इस [संसार में कुछ मनुष्यों का आयुष्य अल्प होता है, जैसे श्रोत्र-प्रज्ञान के परिहीन हो जाने पर, चक्षु-प्रज्ञान के परिहीन हो जाने पर, घ्राण-प्रज्ञान के परिहीन हो जाने पर, रस-प्रज्ञान के परिहीन हो जाने पर, स्पर्श-प्रज्ञान के परिहीन हो जाने पर, [वे अल्प आयु में ही मर जाते हैं।] ५. अवस्था [जरा की ओर जा रही है-यह देखकर [पुरुष चिन्ताग्रस्त हो जाता है। www.jainelibrary.org Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only
SR No.002574
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Aayaro Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages388
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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