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शस्त्र-परिज्ञा
ये सब प्राणी वायु का स्पर्श पाकर सिकुड़ जाते हैं। जो प्राणी वायु का स्पर्श पाकर सिकुड़ जाते हैं, वे [उसके स्पर्श से मछित हो जाते हैं । जो[उसके स्पर्श से] मूच्छित हो जाते हैं, वे वहाँ मर जाते हैं।
१६५. जो वायुकायिक जीव पर शस्त्र का समारम्भ (प्रयोग) करता है, वह इन
आरम्भों (तत्सम्बन्धी व तदाश्रित जीव-हिंसा की प्रवृत्ति ) से बच नहीं पाता।
१६६. जो वायुकायिक जीव पर शस्त्र का समारम्भ नहीं करता, वह इन आरम्भों
(तत्सम्बन्धी व तदाश्रित जीव-हिंसा की प्रवृत्ति) से मुक्त हो जाता है।
१६७. यह जानकर मेधावी मनुष्य स्वयं वायु-शस्त्र का समारम्भ न करे, दसरों
से उसका समारम्भ न करवाए, उसका समारम्भ करने वालों का अनुमोदन न करे।
१६८. जिसके वायु-सम्बन्धी कर्म-समारम्भ परिज्ञात होते हैं, वही परिज्ञातकर्मा
(कर्म-त्यागी) मुनि होता है।
मुनि को सम्बोध १६९. इस प्रसंग में तुम जानो-[कुछ साधु सुख-सुविधा की भावना से ] बँधे हुए
होते हैं।
१७०. [सुख-सुविधा की भावना से वे बंधते हैं,] जो आचार में रमण नहीं करते।
१७१. [जो आचार में रमण नहीं करते,] वे स्वयं आरम्भ करते हुए [दूसरों को]
आचार का उपदेश देते हैं।
१७२. वे स्वच्छन्दचारी और विषयासक्त होते हैं ।
१७३. [जो स्वच्छन्दचारी और विषयासक्त होते हैं, वे आरम्भ में आसक्त होकर
नई-नई आसक्तियों और नए-नए बन्धनों को उत्पन्न करते हैं।८
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