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शस्त्र-परिज्ञा
१५८. भगवान या गृहत्यागी मुनियों के समीप सुनकर कुछ मनुष्यों को यह ज्ञात
हो जाता हैयह (वायुकायिक जीवों की हिंसा) ग्रन्थि है, यह मोह है, यह मृत्यु है, यह नरक है।
१५९. [फिर भी] मनुष्य जीवन आदि के लिए वायुकायिक जीव-निकाय की हिंसा
में आसक्त होता है।
१६०. वह नाना प्रकार के शस्त्रों से वायु-सम्बन्धी क्रिया में व्याप्त होकर
वायुकायिक जीवों की हिंसा करता है; [वह केवल उन वायुकायिक जीवों की ही हिंसा नहीं करता, किन्तु] नाना प्रकार के अन्य जीवों की भी हिंसा करता है।
वायुकायिक जीव का जीवत्व और वेदना-बोध १६१. [वायुकायिक जीव जन्मना इन्द्रिय-विकल (अन्ध, बधिर, मूक, पंगु और
अवयव-हीन) मनुष्य की भांति अव्यक्त चेतना वाला होता है।] शस्त्र से भेदन-छेदन करने पर जैसे जन्मना इन्द्रिय-विकल मनुष्य को [कष्टानुभूति होती है, वैसे ही वायुकायिक जीव को होती है ।
१६२. [इन्द्रिय-सम्पन्न मनुष्य के ] पैर आदि (द्रष्टव्य, १२९) का शस्त्र से भेदन
छेदन करने पर [उसे प्रकट करने में अक्षम कष्टानुभूति होती है, वैसे ही वायुकायिक जीव को होती है ।
१६३. मनुष्य को मूछित करने या उसका प्राण-वियोजन करने पर [उसे कष्टानु
भूति होती है, वैसे ही वायुकायिक जीव को होती है।]
हिंसा-विवेक १६४. मै कहता हूं
संपातिम (उड़ने वाले) प्राणी होते हैं। वे ऊपर से आकर नीचे गिर जाते
+ पूर्णपाठार्थ इष्टव्यम् १।२६ ।
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