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शस्त्र-परिज्ञा
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वायुकायिक जीवों की हिंसा १५०. तू देख ! प्रत्येक [संयमी साधक हिंसा से विरत हो] संयम का जीवन
जी रहा है।
१५१. [और तू देख ! ] कुछ साधक 'हम गृहत्यागी हैं' यह निरूपित करते हुए
भी [गृहवासी जैसा आचरण करते हैं-वायुकायिक जीवों की हिंसा करते
१५२. वह नाना प्रकार के शस्त्रों से वायु-सम्बन्धी क्रिया में व्याप्त होकर
वायकायिक जीवों की हिंसा करता है; [वह केवल उन वायुकायिक जीवों की ही हिंसा नहीं करता, किन्तु] नाना प्रकार के अन्य जीवों की भी हिंसा करता है।
१५३. इस विषय में भगवान् ने परिज्ञा (विवेक) का निरूपण किया है।
१५४. वर्तमान जीवन के लिए,
प्रशंसा, सम्मान और पूजा के लिए, जन्म, मरण और मोचन के लिए, दुःख-प्रतिकार के लिए---
१५५. कोई साधक स्वयं वायुकायिक जीवों की हिंसा करता है, दूसरों से करवाता
है या करने का अनुमोदन करता है ।
१५६. वह (हिंसा) उसके अहित के लिए होती है;
वह (हिंसा) उसकी अबोधि के लिए होती है।
१५७. वह (संयमी साधक) उसे (हिंसा के परिणामों को) समीचीन दष्टि से
समझकर संयम की साधना में सावधान हो जाता है।
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