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________________ शस्त्र-परिज्ञा १२६. तू देख ! प्रत्येक [संयमी साधक हिंसा से विरत हो] संयम का जीवन जी रहा है। १२७. [और तू देख !] कुछ साधु 'हम गहत्यागी हैं' यह निरूपित करते हुए भी [गृहवासी जैसा आचरण करते हैं-त्रसकायिक जीवों की हिंसा करते हैं।] १२८. वह नाना प्रकार के शस्त्रों से त्रस-सम्बन्धी क्रिया में व्याप्त होकर त्रसकायिक जीवों की हिंसा करता है; [वह केवल उन त्रसकायिक जीवों की ही हिंसा नहीं करता, किन्तु] नाना प्रकार के अन्य जीवों की भी हिंसा करता है। १२९. इस विषय में भगवान् ने परिज्ञा (विवेक) का निरूपण किया है। १३०. वर्तमान जीवन के लिए, प्रशंसा, सम्मान और पूजा के लिए, जन्म, मरण और मोचन के लिए, दुःख-प्रतिकार के लिए १३१. कोई साधक स्वयं त्रसकायिक जीवों की हिंसा करता है, दूसरों से करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। १३२. वह (हिंसा) उसके अहित के लिए होती है; वह (हिंसा) उसकी अबोधि के लिए होती है। १३३. वह (संयमी साधक) उसे (हिंसा के परिणामों को) समीचीन दृष्टि से समझकर संयम की साधना में सावधान हो जाता है। १३४. भगवान् या गृहत्यागी मुनियों के समीप सुनकर कुछ मनुष्यों को यह ज्ञात हो जाता हैयह (त्रसकायिक जीवों की हिंसा) ग्रन्थि है, यह मोह है, यह मृत्यु है, यह नरक है। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002574
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Aayaro Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages388
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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