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शस्त्र-परिज्ञा
११७. जिसके वनस्पति-सम्बन्धी कर्म-समारम्भ परिज्ञात होते हैं, वही परिज्ञातकर्मा (कर्म-त्यागी) मुनि होता है।
---ऐसा मैं कहता हूँ।
षष्ठ उद्देशक
संसार ११८. मैं कहता हूं--
ये प्राणी त्रस हैं, जैसेअंडज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदज, सम्मूर्छिम, उद्भिज्ज और औपपातिक ।"
११६. यह [त्रसलोक] संसार कहलाता है।
१२० [यह संसार] मंद और अज्ञानी के होता है । ३३
१२१. तुम प्रत्येक प्राणी की शान्ति को जानो और देखो।"
१२२. [तुम जानो और देखो-]
सब प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों के लिए अशांति अस्वाद्य, महाभयंकर और दुःखद है। ऐसा मैं कहता हूं।२४
त्रसकायिक जीवों की हिंसा १२३. [दुःख से अभिभूत] प्राणी दिशाओं और विदिशाओं में (सब ओर से)
भयभीत रहते हैं । ५
१२४. तू देख ! आतुर मनुष्य स्थान-स्थान पर [वसकायिक प्राणियों को
परिताप दे रहे हैं।
१२५. [वसकायिक] प्राणी पृथक्-पृथक् शरीरों में आश्रित हैं।
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