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________________ शस्त्र-परिज्ञा ३५ ११२. मनुष्य को मूच्छित करने या उसका प्राण-वियोजन करने पर [उस कष्टानुभूति होती है, वैसे ही वनस्पतिकायिक जीव को होती है । मनुष्य और वनस्पति की तुलना ११३.मैं कहता हूं यह (मनुष्य) भी जन्मता है, यह (वनस्पति) भी जन्मती है । यह (मनुष्य) भी बढ़ता है, यह (वनस्पति) भी बढ़ती है। यह (मनुष्य) भी चैतन्ययुक्त है, यह (वनस्पति) भी चैतन्ययुक्त है। यह (मनुष्य) भी छिन्न होने पर यह (वनस्पति) भी छिन्न होने पर म्लान होता है, __ म्लान होती है। यह (मनुष्य) भी आहार करता यह (वनस्पति) भी आहार करती है। यह (मनुष्य) भी अनित्य है, यह (वनस्पति) भी अनित्य है। यह (मनुष्य) भी अशाश्वत है, यह (वनस्पति) भी अशाश्वत है। यह (मनुष्य) भी उपचित और यह (वनस्पति) भी उपचित और अपचित होता है, अपचित होती है। यह (मनुष्य) भी विविध यह (वनस्पति) भी विविध अवस्थाओं अवस्थाओं को प्राप्त होता है, को प्राप्त होती है।" हिंसा-विवेक ११४. जो वनस्पतिकायिक जीव पर शस्त्र का समारम्भ (प्रयोग) करता है, वह इन आरम्भों [तत्सम्बन्धी व तदाश्रित जीव-हिंसा की प्रवृत्ति] से बच नहीं पाता। ११५. जो वनस्पतिकायिक जीव पर शस्त्र का समारम्भ नहीं करता, वह इन आरम्भों [तत्सम्बन्धी व तदाश्रित जीव-हिंसा की प्रवृत्ति से मुक्त हो जाता है। ११६. यह जानकर मेधावी मनुष्य स्वयं वनस्पति-शस्त्र का समारम्भ न करे, दूसरों से उसका समारम्भ न करवाए, उसका समारम्भ करने वालों का अनुमोदन न करे। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002574
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Aayaro Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages388
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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