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________________ शस्त्र - परिज्ञा ३३ १०४. कोई साधक स्वयं वनस्पतिकायिक जीवों की हिंसा करता है, दूसरों से करवाता है या करने का अनुमोदन करता है । १०५. वह (हिंसा ) उसके अहित के लिए होती है; वह (हिंसा) उसकी अबोधि के लिए होती है । १०६. वह (संयमी साधक ) उसे ( हिंसा के परिणाम को ) समीचीन दृष्टि से समझकर संयम की साधना में सावधान हो जाता है । १०७. भगवान् या गृहत्यागी मुनियों के समीप सुनकर कुछ मनुष्यों को यह ज्ञात हो जाता है यह (वनस्पतिकायिक जीवों की हिंसा ) ग्रन्थि है, यह मोह है, यह मृत्यु है, यह नरक है । १०८. फिर भी मनुष्य जीवन आदि के लिए [ वनस्पतिकायिक जीवनिकाय की हिंसा में ] आसक्त होता है । १०९. वह नाना प्रकार के शस्त्रों से वनस्पति-सम्बन्धी क्रिया में व्यापृत होकर वनस्पतिकायिक जीवों की हिंसा करता है; [ वह केवल उन वनस्पतिकायिक जीवों की ही हिंसा नहीं करता, किन्तु ] नाना प्रकार के अन्य जीवों को भी हिंसा करता है । वनस्पतिकायिक जीव का जीवत्व और वेदना - बोध ११०. [वनस्पतिकायिक जीव जन्मना इन्द्रिय-विकल (अंध, बधिर, मूक, पंगु और अवयव-हीन ) मनुष्य की भांति अव्यक्त चेतना वाला होता है । ] शस्त्र से भेदन - छेदन करने पर जैसे जन्मना इन्द्रिय-विकल मनुष्य को [ कष्टानुभूति होती है, वैसे ही वनस्पतिकायिक जीव को होती है । ] १११. [ इन्द्रिय-सम्पन्न मनुष्य के ] पैर आदि ( द्रष्टव्य १।२९ ) का शस्त्र से भेदनछेदन करने पर [ उसे प्रकट करने में अक्षम कष्टानुभूति होती है, वैसे ही वनस्पति को होती है । ] Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002574
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Aayaro Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages388
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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