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शस्त्र - परिज्ञा
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१०४. कोई साधक स्वयं वनस्पतिकायिक जीवों की हिंसा करता है, दूसरों से करवाता है या करने का अनुमोदन करता है ।
१०५. वह (हिंसा ) उसके अहित के लिए होती है; वह (हिंसा) उसकी अबोधि के लिए होती है ।
१०६. वह (संयमी साधक ) उसे ( हिंसा के परिणाम को ) समीचीन दृष्टि से समझकर संयम की साधना में सावधान हो जाता है ।
१०७. भगवान् या गृहत्यागी मुनियों के समीप सुनकर कुछ मनुष्यों को यह ज्ञात हो जाता है
यह (वनस्पतिकायिक जीवों की हिंसा ) ग्रन्थि है,
यह मोह है,
यह मृत्यु है,
यह नरक है ।
१०८. फिर भी मनुष्य जीवन आदि के लिए [ वनस्पतिकायिक जीवनिकाय की हिंसा में ] आसक्त होता है ।
१०९. वह नाना प्रकार के शस्त्रों से वनस्पति-सम्बन्धी क्रिया में व्यापृत होकर वनस्पतिकायिक जीवों की हिंसा करता है; [ वह केवल उन वनस्पतिकायिक जीवों की ही हिंसा नहीं करता, किन्तु ] नाना प्रकार के अन्य जीवों को भी हिंसा करता है ।
वनस्पतिकायिक जीव का जीवत्व और वेदना - बोध
११०. [वनस्पतिकायिक जीव जन्मना इन्द्रिय-विकल (अंध, बधिर, मूक, पंगु और अवयव-हीन ) मनुष्य की भांति अव्यक्त चेतना वाला होता है । ] शस्त्र से भेदन - छेदन करने पर जैसे जन्मना इन्द्रिय-विकल मनुष्य को [ कष्टानुभूति होती है, वैसे ही वनस्पतिकायिक जीव को होती है । ]
१११. [ इन्द्रिय-सम्पन्न मनुष्य के ] पैर आदि ( द्रष्टव्य १।२९ ) का शस्त्र से भेदनछेदन करने पर [ उसे प्रकट करने में अक्षम कष्टानुभूति होती है, वैसे ही वनस्पति को होती है । ]
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