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शस्त्र-परिज्ञा गृहत्यागी के वेष में गृहवासी ९३. जो विषय है, वह आवर्त है और जो आवर्त है, वह विषय है।८ ९४. ऊंचे, नीचे और तिरछे [स्थानों में] तथा सामने देखने वाला रूपों को देखता
है, सुनने वाला शब्दों को सुनता है। ९५. ऊंचे, नीचे और तिरछे [स्थानों में] तथा सामने [विद्यमान वस्तुओं में]
मूच्छित होने वाला-रूपों में मूच्छित होता है, शब्दों में मूच्छित होता है । १८ ९६. इसे लोक (आसक्ति का जगत् ) कहा जाता है।८ ९७. जो पुरुष इस (आसक्ति-जगत् ) में [इन्द्रिय और मन से] संवृत नहीं होता,
वह मेरी आज्ञा में नहीं है ।२८ ९८. जो बार-बार विषयों का आस्वाद करता है, जिसका आचरण वक्र
(असंयममय) होता है और जो प्रमत्त होता है, वह [गृहत्यागी होकर भी] गृहवासी होता है।८
वनस्पतिकायिक जीवों की हिंसा ९९. तू देख ! प्रत्येक [संयमी साधक हिंसा से विरत हो] संयम का जीवन जी
रहा है। १००. [और तू देख ! ] कुछ साधु 'हम गृहत्यागी हैं' यह निरूपित करते हुए भी
[गहवासी जैसा आचरण करते हैं-वनस्पतिकायिक जीवों की हिंसा
करते हैं] । १०१. वह नाना प्रकार के शस्त्रों से वनस्पति-सम्बन्धी क्रिया में व्याप्त होकर
वनस्पतिकायिक जीवों की हिंसा करता है ; [वह केवल उन वनस्पतिकायिक जीवों की ही हिंसा नहीं करता, किन्तु] नाना प्रकार के अन्य जीवों की भी
हिंसा करता है।२९ १०२. इस विषय में भगवान् ने परिज्ञा (विवेक) का निरूपण किया है। १०३. वर्तमान जीवन के लिए,
प्रशंसा, सम्मान और पूजा के लिए, जन्म, मरण और मोचन के लिए, दुःख-प्रतिकार के लिए
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