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शस्त्र-परिज्ञा
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ये सब प्राणी अग्नि का स्पर्श पाकर सिकुड़ जाते हैं। जो प्राणी अग्नि का स्पर्श पाकर सिकुड़ जाते हैं, वे (उसकी उष्मा से) मूच्छित हो जाते हैं। जो (उसकी उष्मा से) मूच्छित हो जाते हैं, वे वहां मर जाते हैं।
८६. जो अग्निकायिक जीव पर शस्त्र का समारम्भ (प्रयोग) करता है, वह इन
आरम्भों [तत्सम्बन्धी व तदाश्रित जीव-हिंसा की प्रवृति से बच नहीं पाता।
८७. जो अग्निकायिक जीव पर शस्त्र का समारम्भ नहीं करता, वह इन आरम्भों
[तत्सम्बन्धी व तदाश्रित जीव-हिंसा की प्रवृत्ति] से मुक्त हो जाता है ।
८८. यह जानकर मेधावी मनुष्य स्वयं अग्नि-शस्त्र का समारम्भ न करे, दूसरों
से उसका समारम्भ न करवाए, उसका समारम्भ करने वालों का अनुमोदन न करे।
८९. जिसके अग्नि-सम्बन्धी कर्म-समारम्भ परिज्ञात होते हैं, वही परिज्ञातकर्मा (कर्म-त्यागी) मुनि होता है ।
-ऐसा मैं कहता हूं।
पंचम उद्देशक
अनगार
९०. [अहिंसा-व्रती संकल्प करे-] [मैं अहिंसा-धर्म में] दीक्षित होकर वह
(हिंसा) नहीं करूंगा। ९१. मतिमान पुरुष [जीवों के अस्तित्व का] मनन कर और अभय [सब जीव
अभय चाहते हैं, इस आत्म-तुला] को समझकर [किसी की भी हिंसा नहीं
करता] । ९२. जो हिंसा नहीं करता, वह व्रती होता है, इस (अर्हत्-शासन) में जो व्रती होता
है, वही अनगार कहलाता है।
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