________________
२७
शस्त्र-परिज्ञा ७९. भगवान् या गृहत्यागी मुनियों के समीप सुनकर कुछ मनुष्यों को यह ज्ञात हो
जाता हैयह (अग्निकायिक जीवों की हिंसा) ग्रन्थि है, यह मोह है, यह मृत्यु है, यह नरक है।
८०. [फिर भी] मनुष्य जीवन आदि के लिए [अग्निकायिक जीव-निकाय की
हिंसा में] आसक्त होता है।
८१. वह नाना प्रकार के शस्त्रों से अग्नि-सम्बन्धी क्रिया में व्याप्त होकर
अग्निकायिक जीवों की हिंसा करता है; [वह केवल उन अग्निकायिक जीवों की ही हिंसा नहीं करता, किन्तु] नाना प्रकार के अन्य जीवों की भी हिंसा करता है।
अग्निकायिक जीव का जीवत्व और वेदना-बोध
८२. [ अग्निकायिक जीव जन्मना इन्द्रिय-विकल (अंध, बधिर, मूक, पंगु और
अवयव-हीन) मनुष्य की भांति अव्यक्त चेतना वाला होता है ।] शस्त्र से भेदन-छेदन करने पर जैसे जन्मना इन्द्रिय-विकल मनुष्य को [कष्टानुभूति होती है, वैसे ही अग्निकायिक जीव को होती है ।
८३. [इन्द्रिय-सम्पन्न मनुष्य के] पैर आदि (द्रष्टव्य, १।२९) का शस्त्र से भेदन
छेदन करने पर [उसे प्रकट करने में अक्षम कष्टानुभूति होती है, वैसे
ही अग्निकायिक जीव को होती है] । ८४. मनुष्य को मूच्छित करने या उसका प्राण-वियोजन करने पर [उसे
कष्टानुभूति होती है, वैसे ही अग्निकायिक जीव को होती है ।
हिंसा-विवेक ८५. मैं कहता हूं
पृथ्वी, तृण, पत्र, काष्ठ, गोबर और कचरे के आश्रय में अनेक प्राणी होते हैं ; संपातिम (उड़ने वाले) प्राणी होते हैं। वे ऊपर से आकर नीचे गिर जाते हैं।
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org