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शस्त्र-परिज्ञा
७०. यह जानकर मेधावी पुरुष [ संकल्प करे --]
'अब मैं वह नहीं करूंगा, जो मैंने प्रमादवश पहले किया है ।'
७१. तू देख ! प्रत्येक [ संयमी साधक हिंसा से विरत हो ] संयम का जीवन जी रहा है।
७२. [ और तू देख ! ] कुछ साधु, 'हम गृहत्यागी हैं' यह निरूपित करते हुए भी [गृहवासी जैसा आचरण करते हैं— अग्निकायिक जीवों की हिंसा करते हैं । ]
७३. वह नाना प्रकार के शस्त्रों से अग्नि-सम्बन्धी क्रिया में व्यापृत होकर अग्निकायिक जीवों की हिंसा करता है; [ वह केवल उन अग्निकायिक जीवों की ही हिंसा नहीं करता, किन्तु ] नाना प्रकार के अन्य जीवों की भी हिंसा करता है ।
७४. इस विषय में भगवान् ने परिज्ञा (विवेक) का निरूपण किया है ।
७५. वर्तमान जीवन के लिए,
प्रशंसा, सम्मान और पूजा के लिए,
जन्म, मरण और मोचन के लिए, दुःख प्रतिकार के लिए
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७६. कोई साधक स्वयं अग्निकायिक जीवों की हिंसा करता है, दूसरों से करवाता है या करने का अनुमोदन करता है ।
७७. वह (हिंसा) उसके अहित के लिए होती है;
वह (हिंसा) उसकी अबोधि के लिए होती है ।
७८. वह (संयमी साधक) उसे ( हिंसा के परिणाम को ) समीचीन दृष्टि से समझकर संयम की साधना में सावधान हो जाता है ।
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