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________________ शस्त्र-परिज्ञा ४८. भगवान् या गृहत्यागी मुनियों के समीप सुनकर कुछ मनुष्यों को यह ज्ञात हो जाता हैयह [जलकायिक जीवों की हिंसा ग्रन्थि है, यह मोह है, यह मृत्यु है, यह नरक है। ४६. [फिर भी] मनुष्य जीवन आदि के लिए [जलकायिक जीव-निकाय की हिंसा में] आसक्त होता है। ५०. वह नाना प्रकार के शस्त्रों से जल-सम्बन्धी क्रिया में व्याप्त होकर जलकायिक जीवों की हिंसा करता है; [वह केवल उन जलकायिक जीवों की हिंसा नहीं करता, किन्तु] नाना प्रकार के अन्य जीवों की भी हिंसा करता है। जलकायिक जीव का जीवत्व और वेदना-बोध ५१. मैं कहता हूं [जलकायिक जीव जन्मना इन्द्रिय-विकल (अंध, बधिर, मूक, पंगु और अवयव-हीन) मनुष्य की भांति अव्यक्त चेतना वाला होता है।] शस्त्र से भेदन-छेदन करने पर जैसे जन्मना इन्द्रिय-विकल मनुष्य को [कष्टानुभूति होती है, वैसे ही जलकायिक जीव को होती है।] ५२. [इन्द्रिय-सम्पन्न मनुष्य के ] पैर आदि (द्रष्टव्य, १।२९) का शस्त्र से भेदन छेदन करने पर [उसे प्रकट करने में अक्षम कष्टानुभूति होती है, वैसे ही जलकायिक जीव को होती है।] ५३. मनुष्य को मूच्छित करने या उसका प्राण-वियोजन करने पर [उसे कष्टानुभूति होती है, वसे ही जलकायिक जीव को होती है। हिंसा-विवेक ५४. मैं कहता हूं जल के आश्रय में अनेक प्राणधारी जीव हैं। [-यह सब दार्शनिक स्वीकार करते हैं, किन्तु] Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002574
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Aayaro Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages388
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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