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________________ उपधान-श्रुतं होता, तब वे रुष्ट होकर गालियां देतीं। इस बात का उनके पतियों को पता चलता, तब वे भगवान् के पास आकर व्यंग की भाषा में बोलते,-'इसी भिक्षु ने हमारी रमणियों को अपने मोह-जाल में फंसाया। हमें इसका प्रतिकार करना चाहिए। वे भगवान् को गालियां देते और ताड़ना-तर्जना भी करते । भगवान् आत्म-ध्यान में लीन रहते थे; इसलिए वे इन दोनों स्थितियों की ओर ध्यान नहीं देते। ३१ १५. भगवान् साधना-काल में लाढ देश (पश्चिम बंगाल के तमलुक, मिदनापुर, हुगली तथा बर्दवान जिल्ले का हिस्सा) में गए थे। उस प्रदेश में घास बहुत होती थी। इसलिए बार-बार उसके चुभन के प्रसंग आते। वह प्रदेश पर्वतों से आकीर्ण था। इसलिए वहां सर्दी बहुत पड़ती थी। ग्रीष्म में भगवान् सूर्य के आतप को सहन करते थे। हालदुग में भगवान् को अग्नि का स्पर्श सहना पड़ा। लाढ़ प्रदेश में डांस, मच्छर, जलोका आदि जीव-जन्तु भी बहुत थे। भगवान् इन सब स्थितियों को जानते हुए भी समभाव की कसौटी के लिए वहां गए थे। ३३२ १६. लाढ देश पर्वतों और बीहड़ जंगलों के कारण बहुत दुर्गम था, फिर भी भगवान् वहां गए । वहां भगवान् को रहने के लिए प्रायः सूने और टूटे-फूटे घर मिले। उन्हें बैठने के लिए काष्ठासन, फलक और पट्ट मिले, वे भी धूल, उपले और मिट्टी से सने हुए थे; फिर भी भगवान् के समभाव में कोई अन्तर नहीं आया। १७. लाढ देश के वज्र और सुम्ह प्रदेशों में प्रायः नगर नहीं थे। वहां तिल नहीं होते थे; गाएं भी बहुत कम थीं; इसलिए तेल और घृत सुलभ नहीं थे। फलत: वहां के निवासी रूखा भोजन करते थे; रूखा आहार करने के कारण वे बहुत क्रोधी थे। बात-बात में रुष्ट होना, गाली देना, प्रहार करना उनके लिए सहज था। वे घास के द्वारा शरीर का प्रावरण करते थे। भगवान् मध्याह्न में भोजन लेते थे। वहां उन्हें ठंडे चावल (पानी में भिगोकर रखे हुए) और उड़द की दाल मिलती थी; अम्ल-रस मिलता था, नमक नहीं। वहां कुत्ते बहुत खूख्वार होते थे। वहां के निवासी कुत्तों से बचाव करने के लिए लाठी और डंडे रखते थे। भगवान् के पास न कोई लाठी थी और न कोई डंडा। इसलिए कुत्तों को आक्रमण करने में कोई रुकावट नहीं होती। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002574
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Aayaro Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages388
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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