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उपधान-श्रुतं
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४. भगवान् साधना-काल के साढ़े बारह वर्षों में इन वास-स्थानों में प्रसन्नमना
रहते थे। वे रात और दिन [मन, वाणी और शरीर को] स्थिर और एकाग्र तथा इन्द्रियों को शांत कर समाहित अवस्था में ध्यान करते थे।
५. भगवान् शरीर-सुख के लिए नीद नहीं लेते थे। [निद्रा का अवसर आने पर
वे खड़े होकर अपने-आप को जाग्रत कर लेते थे। वे [चिर जागरण के बाद शरीर-धारण के लिए] कभी-कभी थोड़ी नींद लेते थे। उनके मन में निद्रासुख की आकांक्षा नहीं थी।१२
६. भगवान् पलभर की नींद के बाद फिर जागृत होकर आन्तरिक जागरूकतापूर्वक ध्यान में बैठ जाते थे । कभी-कभी रात्री में नींद अधिक सताने लगती तब वे उपाश्रय से बाहर निकलकर मुहर्तभर चंक्रमण करते, [फिर अपने स्थान में आकर ध्यान-लीन हो जाते] ।
७. भगवान् को उन आवास-स्थानों में अनेक प्रकार के भयंकर उपसर्ग झेलने पड़े। [वे ध्यान में रहते, तब कभी सांप और नेवला काट खाते, कभी कुत्ते काट खाते । कभी चींटियां शरीर को लहूलुहान कर देतीं, कभी डांस, मच्छर और मक्खियां सतातीं, [फिर भी भगवान् आत्म-ध्यान में लीन रहते ।।
८. [सने घर में ध्यान करते, तब उन्हें चोर या पारदारिक सताते; [जब वे तिराहे-चौराहे पर ध्यान करते, तब हाथ में भाले लिए हुए ग्राम-रक्षक उन्हें सताते। भगवान् को कभी स्त्रियों और कभी पुरुषों के द्वारा कृत कामसम्बन्धी उपसर्ग सहने होते।"
९. भगवान् ने मनुष्य और तिर्यंच (पशु)-सम्बन्धी नाना प्रकार के भयानक कष्ट
सहन किए । वे अनेक प्रकार के सुगंध और दुर्गंध तथा प्रिय और अप्रिय शब्दों में संतुलित रहे।
१०. उन्होंने अपनी समीचीन प्रवृत्ति के द्वारा नाना प्रकार के स्पर्शों को झेला ।
वे संयम में होने वाली अरति और असंयम में होने वाली रति को [ध्यान के द्वारा] अभिभूत कर चलते थे। वे प्रायः मौन रहते थे-आवश्यकता होने पर ही कुछ-कुछ बोलते थे।
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