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________________ उपधान-श्रुत ३२५ १६. ज्ञानी और मेधावी भगवान् ने [क्रियावादx-आत्मवाद और अक्रियावाद अनात्मवाद दोनों की समीक्षा कर तथा इन्द्रियों के स्रोत, हिंसा के स्रोत और योग (मन, वचन और काया की प्रवृत्ति) को सब प्रकार से जानकर दूसरों के द्वारा अप्रतिपादित क्रिया का प्रतिपादन किया। १७. भगवान् स्वयं प्राणवध नहीं करते और दूसरों से नहीं करवाते थे। भगवान् ने देखा--[स्वजन-वर्ग ने पूछा-तुम स्त्रियों का परिहार क्यों करते हो ? भगवान् ने कहा-] स्त्रियां [अब्रह्मचर्य] सब कर्मों का आवाहन करने वाली हैं; [जो उनका परित्याग करता है, वह [आत्मा को] देखता है। १८. भगवान् ने देखा कि मुनि के लिए बना हुआ भोजन लेने से कर्म का बंध होता है; इसलिए उसका सेवन नहीं किया। भगवान् [आहार-सम्बन्धी] किसी भी पाप का सेवन नहीं करते थे। वे प्रासुक भोजन करते थे। १६. [भगवान् स्वयं अवस्त्र थे और किसी दूसरे के वस्त्र का सेवन नहीं करते थे। [स्वयं पात्र नहीं रखते थे] और किसी दूसरे के पात्र में नहीं खाते थे। वे 'अवमान-भोज' में आहार के लिए नहीं जाते थे। वे सरस भोजन की स्मृति नहीं करते थे। x सूत्रकृतांग १।१२।२०, २१ में बतलाया गया है अत्ताण जो जाणइ जो य लोग। जो आगतिं जाणइऽणाति च ॥ • ओ सासयं जाण असासयं च । जाति मरणं च चयणोववातं ॥ अहो वि .कत्ताण विउट्टणं च। जो आसवं जाणति संवरं च ॥ दुक्खं च जो जाणइ णिज्जरं च । सो भासिउमरिहति किरियवाद ।। + चूर्णिकार ने 'पापक' शब्द के अनेक अर्थ किए हैं। भगवान् 'जो कोई आएगा, उसे दूंगा'-इस भावना से बना हुआ भोजन नहीं लेते थे। इसलिए उन्हें उसके अनुमोदन का दोष नहीं लगता। भगवान् पापक-मांस, मद्य आदि का सेवन नहीं करते थे। भगवान् पापक-आहार-सम्वन्धी किसी भी पाप का आचरण नहीं करते थे। (चूणि, पु० ३०८) Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002574
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Aayaro Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages388
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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