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________________ उपधान-श्रुत ३२१ ५. भगवान् प्रहर-प्रहर तक आंखों को अपलक रख तिरछी भींत पर मन को केन्द्रित कर ध्यान करते थे। [लम्बे समय तक अपलक रहीं आंखों की पूतलियां ऊपर की ओर चली जातीं। उन्हें देखकर भयभीत बनी हई बच्चों की टोली 'हंत ! हंत !' कहकर चिल्लाती-दूसरे बच्चों को बुला लेती। ६. भगवान् जनसंकुल स्थानों में नहीं ठहरते थे। [कभी-कभी ऐसा होता कि वे एकान्त स्थान देखकर ठहरते], पर [एकान्त की खोज में] कुछ स्त्रियां वहां आ जातीं। भगवान् की प्रज्ञा जागृत थी; [इसलिए उनके द्वारा भोग की प्रार्थना किए जाने पर भी] भगवान् भोग का सेवन नहीं करते थे । वे अपनी आत्मा की गहराइयों में पैठ कर ध्यान में लीन रहते थे। ७. गृहस्थों से संकुल स्थान प्राप्त होने पर भी भगवान् अपने मन को किसी में न लगाते हुए ध्यान करते थे। वे पूछने पर भी नहीं बोलते । उन्हें कोई बाध्य करता, तो वे वहां से मौनपूर्वक दूसरे स्थान में चले जाते। वे ध्यान का अतिक्रमण नहीं करते और हर स्थिति में मध्यस्थ रहते। ८. भगवान् अभिवादन करने वालों को आशीर्वाद नहीं देते थे। डंडे से पीटने और अंग-भंग करने वाले अभागे लोगों को वे शाप नहीं देते थे। साधना की यह भूमिका हर किसी साधक के लिए सुलभ नहीं है। + चर्णिकार और टीकाकार ने इस गाथा का अर्थ इस प्रकार किया है-भगवान् प्रारम्भ में संकड़ी और आगे चौड़ी (तिर्यग् भित्ति) शरीर-प्रमाण वीथि (पौरुषी) पर ध्यानपूर्वक चक्षु टिकाकर चलते थे। इस प्रकार अनिमिष दृष्टि से चलते हुए भगवान् को देखकर डरे हुए बच्चे 'हंत ! हंत !' कहकर चिल्लाते-दूसरे बच्चों को बुला लेते। डा. हर्मन जेकोबी ने अंग्रेजी अनुवाद टीका के आधार पर किया है, पर 'तिर्यग्भित्ति' के अर्थ पर उन्होंने संदेह प्रकट किया है। उनके अनुसार : “I can not make out the exact meaning of it, perhaps; 'So that he was a wall for the animals' (अर्थात् संभवत: इसका अर्थ है-जिससे कि भगवान् ति यंचों के लिए भित्ति के समान थे।) भित्ति पर ध्यान करने की पद्धति बौद्ध साधकों में भी रही है। प्रस्तुत सूत्र में भी उल्लेख है-भगवान् ऊध्वं, अध: और तिर्यक् ध्यान करते थे (२।१२५)। भगवती सूत्र के टीकाकार अभयदेव सूरि ने 'तिर्यग् भित्ति' का अर्थ 'प्राकार, वरण्डिका आदि की भित्ति' अथवा 'पर्वत-खण्ड' किया है। (भगवती वृत्ति, पत्र ६४३-४४) x चोरपल्ली में भगवान् के अंग का भंग करने का या काट खाने का प्रयल किया गया था। चूर्णिकार ने इसकी सूचना दी है। (देखें, आचारांग चूणि, पृ० ३०२) । Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002574
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Aayaro Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages388
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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