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________________ विमोक्ष प्रमाणित नहीं किया जा सकता । वास्तविकता और अवास्तविकता दोनों परस्पर सापेक्ष हैं । द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक नय से इन्हें जाना जा सकता है। वास्तविकता का बोध द्रव्यार्थिक नय से और अवास्तविकता का बोध पर्यायार्थिक नय से होता है । एकान्त दृष्टि वाले ये सारे वाद परस्पर विरोधी सिद्धान्तों का प्रतिपादन करते हैं । ३११ सूत्र - १० ४. 'रागदोसकरो वादो' ' -वाद प्रायः राग, द्वेष उत्पन्न करता है; अतः जहां भी राग-द्वेष का प्रसंग आए, वहां मुनि मौन हो जाए। सूत्र - ११-१३ ५. हिंसा का अतिक्रमण कर जीवन जीना विवेक है । यह व्याख्या का एक नय है । चूर्णि और टीका में इन तीन सूत्रों की व्याख्या दूसरे नय से की गई है । अन्यतीर्थिक भिक्षुओं द्वारा निमन्त्रित होने पर भिक्षु कहे- 'आपके दर्शन में पचन - पाचन आदि की हिंसा सम्मत है । मेरे दर्शन में वह सम्मत नहीं है । उसका अतिक्रमण करना मेरा विवेक है ।' सूत्र - १४ ६. कुछ साधक 'ग्राम में धर्म होता है, यह निरूपित करते थे। कुछ साधक यह निरूपित करते थे कि 'अरण्य में धर्म होता है।' इस विषय में शिष्य ने जिज्ञासा की, तब आचार्य ने बताया कि धर्म का आधार आत्मा है। ग्राम और अरण्य उसके आधार नहीं हैं । इसलिए धर्म न ग्राम में होता है, न अरण्य में । वह आत्मा में ही होता है । वास्तव में आत्मा का स्वभाव ही धर्म है । पूज्यपाद देवनन्दी ने इस आशय का नयान्तर से निरूपण किया हैग्रामोऽरण्यमिति द्वेधा निवासो नात्मदशनाम् । दृष्टात्मनां निवासस्तु विविक्तात्मेव निश्चलः ॥ -समाधिशतक, ७३ -- अनात्मदर्शी साधक गांव या अरण्य में रहता है । किन्तु आत्मदर्शी साधक शुद्ध आत्मा में ही रहता है, ग्राम या अरण्य में नहीं । Jain Education International 2010_03 सूत्र - १५ ७. शतवर्षीय जीवन की दस अवस्थाएं होती हैं। यहां दीक्षा-योग्य अवस्थाएं विवक्षित हैं । प्रथम अवस्था आठ वर्ष से तीस वर्ष तक, द्वितीय अवस्था इकतीस For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002574
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Aayaro Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages388
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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