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________________ विमोक्ष ३०६ २०. यह उत्तम धर्म है। इसमें पूर्व स्थान-इंगितमरण और भक्त-प्रत्याख्यान -----का आचार है ही। सर्वथा निश्चल रहना इसका विशेष धर्म है। [प्रायोपगमन अनशन स्वीकार करने वाला] भिक्षु जीव-जन्तु-रहित स्थान को देखकर वहां निश्चेष्ट+ होकर रहे। २१. अचित्त [फलक, स्तम्भ आदि को प्राप्त कर, वहां अपने-आप को स्थापित करे। शरीर को सब प्रकार से विसर्जित कर दे। [परीषह उत्पन्न होने पर, वह यह भावना करे-] 'यह शरीर ही मेरा नहीं है, तब मुझे परीषह (उपद्रव) [कहां होगा] ?' | २२. जब तक जीवन है, तब तक ये परीषह और उपसर्ग होते हैं, यह जानकर शरीर को विसर्जित करने वाला और शरीर-भेद के लिए [समुद्यत] प्राज्ञ भिक्षु उन्हें समभाव से सहन कर ले । २३. इस जगत् में शब्द आदि प्रचुर काम होते हैं। किन्तु वे सब क्षणभंगुर हैं। [इसलिए] वह उनमें रक्त न हो; इच्छा-लोभ का भी सेवन न करे। संयम बहुत सूक्ष्म होता है। उसका दर्शन करने वाला ऐसा न करे। २४. कोई देव दिव्य भोगों के लिए निमन्त्रित करे, तब भिक्षु उस देव-माया पर श्रद्धा न करे । वह सब प्रकार की माया (वंचना के आवरण) को क्षीणकर उस माया को समझ ले। २५. दिव्य और मानुषी-सब प्रकार के विषयों में अमूच्छित और आयुकाल के पार तक पहुंचने वाला भिक्षु तितिक्षा को परम जानकर, हितकर विमोक्षभक्त-प्रत्याख्यान, इंगितमरण और प्रायोपगमन में से किसी एक का आलम्बन ले। ---ऐसा मैं कहता हूं। *णि और वृत्ति में इसका अर्थ 'स्थित' किया गया है। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002574
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Aayaro Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages388
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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