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________________ विमोक्ष ३०७ १३. वह हरियाली पर न सोए; स्थण्डिल (हरित और जीव-जन्तु-रहित स्थान) को देखकर वहां सोए । वह अनाहार भिक्षु [शरीर आदि का विसर्जन कर, [भूख, प्यास या अन्य परीषहों से] स्पृष्ट होने पर उन्हें सहन करे। १४. इन्द्रियों से ग्लान (श्रान्त) होने पर वह मुनि मात्रा-सहित [हाथ-पैर आदि का] संकोच (परिवर्तन) करे । जो अचल और समाहित होता है, वह ऐसा करता हुआ धर्म का अतिक्रमण नहीं करता। १५. वह [बैठा या लेटा हुआ श्रान्त हो जाए, तब शरीर-संधारण के लिए गमन और आगमन (अभिक्रमण और प्रतिक्रमण) करे, [हाथ, पर आदि को] सिकोड़े और फैलाए। [यदि शक्ति हो, तो इस अनशन में भी अचेतन की भांति निश्चेष्ट लेटा रहे। १६. वह लेटा-लेटा श्रान्त हो जाए, तो चंक्रमण करे अथवा सीधा खड़ा हो जाए। खड़ा-खड़ा श्रान्त हो जाए, तो अन्त में बैठ जाए। १७. इस असाधारण मरण की उपासना करता हुआ वह इन्द्रियों का सम्यग् प्रयोग करे-इष्ट और अनिष्ट विषयों में राग-द्वेष न करे । घुन और दीमक वाले काष्ठ-स्तम्भ का सहारा न ले। घुन आदि से रहित और निश्छिद्र (प्रकट) काष्ठ-स्तम्भ की एषणा करे। १८. जिसका सहारा लेने से वयं (कर्म) उत्पन्न हो, उसका सहारा न ले। उससे अपने-आप को दूर रखे; सब स्पर्शों को सहन करे । प्रायोपगमन १६. यह (प्रायोपगमन) अनशन इंगित मरण से उत्तमतर है; जो उक्त विधि से [इसका] अनुपालन करता है, वह समूचे शरीर के अकड़ जाने पर भी अपने स्थान से चलित न हो। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002574
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Aayaro Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages388
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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