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विमोक्ष
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३. वह कषाय को कृश तथा आहार को अल्प कर [ अल्पाहारता के कारण होने वाले कष्टों को ] सहन करता है, आहार की अल्पता करते-करते वह मरणासन्न काल में ग्लान हो जाता है ।
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४. वह [ ग्लान अवस्था में ] जीवन की आकांक्षा न करे, मरण की इच्छा न करे । वह जीवन और मरण- दोनों में भी आसक्त न बने ।
५. वह मध्यस्थ और निर्जरादर्शी + भिक्षु समाधि का अनुपालन करे । [ रागद्वेष आदि ] आन्तरिक और [ शरीर आदि ] बाह्य वस्तुओं का विसर्जन कर शुद्ध अध्यात्म की एषणा करे ।
६. अवाध रूप से चल रहे अपने संलेखनाकालीन जीवन में आकस्मिक बाधा जान पड़े, तो उस संलेखना - काल के मध्य में ही पण्डित भिक्षु आहार का प्रत्याख्यान करे ।
७. ग्राम में अथवा अरण्य में स्थण्डिल ( जीव-जन्तु-रहित स्थान ) को देखकर घास का बिछौना करे ।
+ मध्यस्थ – अनशन - काल में भिक्षु को जीवन, सुख आदि अनुकूल परिणामों और मृत्यु, दुःख आदि प्रतिकूल परिणामों में सम रहना चाहिए। सूत्रकार ने 'मध्यस्थ' शब्द के द्वारा इसका निर्देश दिया है ।
+ निर्जरादर्शी - इस समभाव का आलम्बन है - निर्जरा । अनशन करने वाले भिक्षु की दृष्टि इस बात पर लगी रहती है कि अधिक से अधिक निर्जरा-कर्मों का क्षय हो । जो निर्जरादर्शी नहीं होता, वह मध्यस्थ भी नहीं रह सकता ।
+ समाधि - ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य -- ये पांच 'समाधि' के अंग हैं । अनशन करने वाले को इस पंचांग समाधि का अनुभव करना चाहिए।
x अध्यात्म की एषणा का पहला चरण है- शरीर की प्रवृत्ति का और उसके ममत्व का विसर्जन । इस विसर्जन के बाद साधक भीतर की ओर झांकता है तो भीतर में राग-द्वेष की ग्रन्थियां मिलती हैं। वहां शुद्ध अध्यात्म दीख नहीं पड़ता । जो साधक उन ग्रन्थियों को खोलकर फिर भीतर की गहराई में झांकता है, उसे शुद्ध अध्यात्म – आत्मा के निरावरण चैतन्य रूप का दर्शन होता है ।
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